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Fast Depleting Natural Water Resources of Uttarakhand

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सूख गए उत्तराखंड के नेचुरल वाटर सोर्स

उत्तराखंड में 12000 से अधिक ग्लेशियर और 8 नदियां निकलती हैं. बावजूद इसके उत्तराखंड में मौजूदा समय में 461 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 76% से अधिक पानी अब बचा ही नहीं यानी पूरी तरह से सूख चुका है. इसके साथ ही प्रदेश में 1290 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 51-75 प्रतिशत पानी सूख चुका है. आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 2873 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 50 प्रतिशत तक पानी कम हो चुका है और ये निरंतर कम हो रहा है. राज्य में सबसे अधिक जल संकट, टिहरी, पिथौरागढ़, चमोली, अल्मोड़ा, और बागेश्वर जिले में है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ प्राकृतिक जल स्रोत कम हो रहे हैं. केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय की मानें तो राज्य में 725 ऐसे जलाशय हैं, जो पूरी तरह से सूख चुके हैं. उत्तराखंड में 3096 जलाशय हैं, जिसमें 2970 जलाशय ग्रामीण क्षेत्र में है, जबकि 126 जलाशय शहरी क्षेत्र में हैं. रिपोर्ट कहती है कि 2371 जलाशय में हाल ही में पानी पाया गया था, जबकि 725 जल से पूरी तरह से सूख चुके हैं, जिसकी वजह मंत्रालय ने प्रदूषण फैक्ट्री और तालाबों के ऊपर बस्तियों को बताया था.जल संरक्षण अभियान-2024 में 2.51 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी के सापेक्ष अब तक 2.38 मिलियन क्यूबिक मीटर रिचार्ज कर लिया गया है। बताया कि जल संस्थान एवं पेयजल निगम ने पेयजल आपूर्ति के ष्टिगत 500 ऐसे जलस्रोत चिह्नित किए हैं, जिनमें पिछले वर्षों में जल प्रवाह 50 प्रतिशत से भी कम हो गया है।राज्य में गांव स्तर पर 5421 जल स्रोतों, विकासखंड स्तर पर सूखने के कगार पर पहुंच चुके 929 जल स्रोतों और जिला स्तर पर 292 सहायक नदियों व धाराओं का ट्रीटमेंट चल रहा है। उन्होंने बताया कि जिला स्तरीय समितियों ने जो कार्य अनुमोदित किए हैं, उनमें 50 प्रतिशत अंश सारा और शेष वित्त पोषण संबंधित विभाग करेंगे।

गंभीर श्रेणी में शामिल जलस्रोतों के रिचार्ज जोन का निर्धारण जियो हाइड्रोलाजिकल अध्ययन के उपरांत किया जाएगा। एसीएस ने कहा कि अत्यधिक महत्वपूर्ण जलस्रोतों के संरक्षण एवं पुनर्जीवीकरण कार्य को शीर्ष प्राथमिकता में रखते हुए कार्य किया जाए। उन्होंने कहा कि रूरल व शहरी क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए लघु एवं दीर्घकालीन नीतियों पर कार्य करते हुए बेस्ट प्रैक्टिस अपनाई जानी चाहिए। उन्होंने सारा के अंतर्गत हो रहे कार्यों की जियो टैङ्क्षगग अनिवार्य रूप से करने, सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भूजल रिचार्ज के कार्यों को तेजी से अमल में लाने, वर्षा आधारित सहायक नदियों व धाराओं की उपचारात्मक योजनाओं का निरूपण वैज्ञानिक ढंग से करने और जलस्रोतों के सतत अनुरक्षण में सामुदायिक सहभागिता सुनिश्चित करने के निर्देश भी दिए पिछले 30 से 40 सालों में उत्तराखंड में करीब एक लाख प्राकृतिक जल स्रोत सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए समुदाय पर आधारित जल स्रोत प्रबंधन केंद्र बनाए जाने की आवश्यकता है। इन प्रबंधन केंद्रों पर स्थानीय पंचायतों की भूमिका भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। जल संरक्षण अभियान के तहत कैच द रेन, जल संरक्षण अभियान, अमृत सरोवर, हरेला कार्यक्रम के माध्यम से जल संरक्षण एवं संवर्द्धन कार्य किए जा रहे हैं।उन्होंने कहा कि प्रदेश में सूख रहे जल स्रोतों, सहायक नदियों और धाराओं का चिन्हीकरण किया गया है। इनके संग्रहण क्षेत्रों की पहचान की गई है। ग्राम स्तर पर जल स्रोतों को चिन्हित कर उनके उपचार क्षेत्र में जल संरक्षण गतिविधियों के निर्देश दिए गए हैं। विकास खंड स्तर पर न्यूनतम 10 क्रिटिकल सूख रहे जल स्रोतों तथा जनपद स्तर पर न्यूनतम 20 सहायक नदियों और धाराओं के उपचार को जल संरक्षण अभियान-2024 के तहत प्रस्तावित करने के निर्देश दिए गए हैं।

उन्होंने बताया कि पेयजल निगम ने 78 और जल संस्थान ने 415 क्रिटिकल जल स्रोत चिन्हित किए हैं। विभिन्न जनपदों में कुल 250 सहायक नदियां, धाराएं उपचार के लिए चिन्हित की गई। जल संरक्षण अभियान के तहत ग्राम स्तर पर 4,658 जल स्रोतों के उपचार क्षेत्र में जल संभरण गतिविधियों, विकास खंड स्तर पर 770 क्रिटिकल सूख रहे जल स्रोतों के उपचार गतिविधियों तथा जनपद स्तर पर 228 सहायक नदियों, धाराओं में उपचार गतिविधियों के संचालन का लक्ष्य है। मोंगाबे, इंडिया में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि हाल के वर्षों में लगभग 12,000 प्राकृतिक झरने सूख गए हैं, उत्तराखंड की 90% आबादी इन महत्वपूर्ण जल स्रोतों पर निर्भर है कागजों पर यह परियोजना बहुत सफल लगती है। सरकारी वेबसाइट के अनुसार, उत्तराखंड में केवल 130,325 घरों में, जो 9 फीसदी से भी कम है, नल का जल कनेक्शन था। जुलाई 2023 तक सरकारी आंकड़ों के अनुसार, उत्तराखंड में 78.40 फीसदी घरों में नल का जल कनेक्शन था, और जुलाई 2024 तक यह अनुपात 95 फीसदी से अधिक हो गया। अधिकारियों ने नल के साथ फोटो खिंचवाने का काम तो कर लिया, फिर भी कई लोग बिना पानी के रह गए हैं। पंत ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले बड़ी गांव के कहते हैं, “अगर मुझे पता होता कि नल केवल सजावटी होगा, तो मैं उन्हें कभी अपनी तस्वीर नहीं लेने देता; पानी के लिए हमारा संघर्ष कभी खत्म नहीं होता।” पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक बताते हैं कि, “विकास परियोजनाओं के कारण वनों की कटाई के साथ-साथ भारी बारिश के कारण बारिश का पानी जमीन में नहीं जा पाता और झरने के जलभृतों को रिचार्ज नहीं कर पाता। नतीजतन, बारिश का ज्यादातर पानी पहाड़ से नीचे बह जाता है, जिससे ये झरने सूख जाते हैं।” कई समुदायों का पोषण करने वाले एक साझा संसाधन के खत्म होने से उन लोगों पर काफी असर पड़ता है जो झरनों पर निर्भर हैं, खासकर हाशिए पर पड़े समूह। इससे एक शून्य पैदा होता है, जो क्षेत्र में रहने वाले बड़े समुदाय को प्रभावित करता है।

दुर्भाग्य से, जलभृतों को रिचार्ज करने के लिए बहुत कम प्रयास किए जाते हैं। इन सब के पीछे वजह जो भी हो, लेकिन इन हालातों की बड़ी वजह इंसान ही हैं. कुछ समय पहले तक जल स्रोतों को गांव के लोग देवता की तरह पूजते थे. साल में कई बार गांव इकट्ठा होकर इन नौले धारों और जल स्रोतों को संजोकर रखते थे. लेकिन आलम यह है कि धीरे-धीरे यह जल स्रोत आबादी वाले इलाकों में सूखने लगे हैं. जल स्रोत प्रबंधन कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि, मौजूदा समय में उत्तराखंड में 4000 ऐसे गांव हैं जो जल संकट से जूझ रहे हैं. रिपोर्ट यह भी बताती है कि 510 ऐसे जल स्रोत हैं, जो अब सूखने की कगार पर आ गए हैं. सबसे ज्यादा असर अल्मोड़ा जनपद पर पड़ा है. यहां पर 300 से अधिक जल स्रोत सूख गए हैं. यहां तक कि उत्तराखंड में प्राकृतिक जल स्रोतों के जलस्तर में 60 फीसदी की कमी आई है. इन सब के पीछे वजह जो भी हो, लेकिन इन हालातों की बड़ी वजह इंसान ही हैं. कुछ समय पहले तक जल स्रोतों को गांव के लोग देवता की तरह पूजते थे. साल में कई बार गांव इकट्ठा होकर इन नौले धारों और जल स्रोतों को संजोकर रखते थे. लेकिन आलम यह है कि धीरे-धीरे यह जल स्रोत आबादी वाले इलाकों में सूखने लगे हैं. जल स्रोत प्रबंधन कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि, मौजूदा समय में उत्तराखंड में 4000 ऐसे गांव हैं जो जल संकट से जूझ रहे हैं. रिपोर्ट यह भी बताती है कि 510 ऐसे जल स्रोत हैं, जो अब सूखने की कगार पर आ गए हैं. सबसे ज्यादा असर अल्मोड़ा जनपद पर पड़ा है. यहां पर 300 से अधिक जल स्रोत सूख गए हैं. यहां तक कि उत्तराखंड में प्राकृतिक जल स्रोतों के जलस्तर में 60 फीसदी की कमी आई है. आने वाले समय में इसके परिणाम बेहद सुखद होंगे!. लेकिन यह बात भी सही है कि केवल सरकार ही नहीं लोगों को भी इस दिशा में आगे कदम बढ़ाना होगा.” लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।


डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला (लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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