Freesabmilega.com News “Maharishi Valmiki: The Divine Poet Who Immortalized Lord Rama’s Tale”

“Maharishi Valmiki: The Divine Poet Who Immortalized Lord Rama’s Tale”

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रामायण के रचयिता भगवान महर्षि वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीकि का जन्म शरद पूर्णिमा को हुआ था। इस वर्ष शरद पूर्णिमा 17 अक्टूबर को है। इसलिये इस वर्ष महर्षि वाल्मीकि का जन्म दिवस 17 अक्टूबर को मनाया जा रहा है। वे भारत के उन विरली विभूतियों में से एक हैं जिनकी उपस्थिति पूरे देश में और स्वरूप मान्यता है। हर समाज उन्हें अपना पूर्वज मानता है। ब्राह्मण समाज उन्हें ऋषि पुत्र मानता है तो वन क्षेत्र में मान्यता है कि वे भील वनवासी समाज में जन्में हैं, वाल्मीकि समाज की गणना दलित वर्ग में तो होती ही है। गुजरात और दक्षिण भारत में निषाद समाज उन्हे अपना पूर्वज मानता है। पंजाब में एक सिख उपवर्ग है जो स्वयं को क्षत्रिय मानता है और वाल्मीकि जी का वंशज। उनका यह भी दावा है कि उनके पूर्वज प्रत्यक्ष युद्ध करते थे। लेकिन आक्रांताओं ने बंदी बनाकर बल पूर्वक मैला ढोने के काम में लगाया। जिस प्रकार उनकी स्थानीय और क्षेत्रीय मान्यता के विविध रूप हैं उसी प्रकार उनके व्यक्तित्व के भी विभिन्न आयाम हैं, कहीं उनकी गणना महर्षियों में है तो कहीं भगवान् वाल्मीकि कहा जाता है। कहीं संत के रूप में तो कहीं महापुरुष के रूप। ऋग्वेद के आठवें मंडल में वे ऋषि रूप में प्रतिष्ठित हैं तो देश के विभिन्न स्थानों पर उनके मंदिर बने हैं, मूर्तियाँ स्थापित हैं। यहां उनकी देवों की भाँति पूजन होता  है। उनके जन्म और महर्षि बनने की कथाएँ भी अलग-अलग मतों से भरी हैं।

उनकी व्यापकता किसी विवाद का विषय नहीं है बल्कि स्तुति का विषय है। समय और विपरित सामाजिक परिस्थितियों के चलते भारत में जो लगभग बारह सौ वर्ष का अंधकार रहा उसमें कुछ प्रतीक उभरे, कथाओं में कुछ विसंगतियां भी जुड़ी। बावजूद इसके महर्षि वाल्मीकि का व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी समाज को प्रेरणा दे रहा है।ऋग्वेद के आठवें मंडल में वे ऋषि रूप में प्रतिष्ठित हैं तो देश के विभिन्न स्थानों पर उनके मंदिर बने हैं, मूर्तियाँ स्थापित हैं। यहां उनकी देवों की भाँति पूजन होता  है। उनके जन्म और महर्षि बनने की कथाएँ भी अलग-अलग मतों से भरी हैं। उनकी व्यापकता किसी विवाद का विषय नहीं है बल्कि स्तुति का विषय है।लगभग सभी पुराणों में किसी न किसी संदर्भ में  वाल्मीकि जी का वर्णन मिलता है। इन कथाओं के उनके जन्म की कथाएँ अलग-अलग हैं। कुछ पुराण कथाओं में उन्हें प्रचेता का ग्यारहवाँ पुत्र और महर्षि भृगु का भाई बताया है तो कहीँ महर्षि अंगिरा का वंशज, कहीँ उन्हे वनवासी बताया गया है और पिता का नाम सुमाली लिखा है। लेकिन सभी कथाओं में यह एक बात समान है कि उनका नाम रत्नाकर था, और उनका पालन पोषण वनवासी भील समाज में हुआ।  वे आजीविका के लिये चाँडाल कर्म करते थे। उन दिनों चोरी डकैती,  शमशान घाट में काम करने और हिंसात्मक कार्यों से अपनी आजीविका कमाने वालों को चाँडाल कहा जाता था। एक दिन नारद निकले रत्नाकर ने रोका और लूटने का प्रयास किया पर नारद जी ने कहा कि उनके पास तो वीणा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। लेकिन नारद जी ने पूछा कि यह सब किसलिये करते हो। रत्नाकर ने कहाकि \”परिवार चलाने केलिये\”। नारद जी ने पूछा कि ”क्या परिवार जन इस पाप में भी भागीदार होंग? सुनकर चौंक पड़े रत्नाकर। उन्होंने घर जाकर परिवार से पूछा तो सबने पाप की सहभागिता से पल्ला झाड़ लिया। वस हृदय परिवर्तन हो गया रत्नाकर का। उन्होंने चाँडाल कर्म छोड़कर भक्ति आरंभ की। कठोर तप के बाद उन्हें ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हो गया और उनके मुँह से व्याकरण युक्त संस्कृत के पहला श्लोक प्रस्फुटित हो गया। आगे चलकर उन्हें ऋषित्व प्राप्त हुआ और वे महर्षि  कहलाये।वाल्मीकि नाम साधारण नहीं है। सामान्य तौर पर कहा जाता है कि कठोर तप और साधना में इतने निमग्न हो गये थे शरीर पर दीमक लग गयी थी दीमक का एक नाम वाल्मि भी कहा जाता है इसलिए उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। लेकिन यह तो लोक चर्चा है। जिस संस्कृत में स्वर और व्यंजन की ध्वनि भी गहरे अनुसंधान के बाद निश्चित किये गये, प्रत्येक नाम सार्थक रखे जाते थे तब वाल्मीकि नाम निरर्थक नहीं हो सकता है।

वस्तुतः \”वाल्मीकि\” शब्द संस्कृत की दो धातुओं से मिलकर बना है। संस्कृत में एक धातु है \”वल्\” जिसका अर्थ होता है केन्द्रीयभूत शक्ति। दूसरी धातु है \”मक्\” जिसका अर्थ आकर्षण होता है। इन दोनों धातुओं की संधि से शब्द बना \”वाल्मीकि\” जिसका अर्थ होता आंतरिक शक्ति का आकर्षण। नाम के अर्थ के संदर्भ में भी वाल्मीकि जी के व्यक्तित्व को देखें। उनका अमृत्व उनके जन्म या परिवार की पृष्ठभूमि के कारण नहीं अपितु उनकी ज्ञानशक्ति के कारण है। यह ज्ञान उन्हे अपनी आंतरिक प्रज्ञा शक्ति से उत्पन्न हुआ और इसी से संसार के प्रत्येक व्यक्ति के लिये आकर्षण का केंद्र बने। महर्षि वाल्मीकि की मान्यता भारत के लगभग सभी समाज जनों में हैं। सब उन्हें अपना मानते हैं। ब्राह्मण उन्हें ऋषि पुत्र मानते हैं तो वनवासी भील वर्ग से, पंजाब में वाल्मीकि जी को क्षत्रिय माना जाता है, मालवा और राजस्थान में दलित। गुजरात में उन्हें निषाद माना जाता है। जिस प्रकार अलग-अलग क्षेत्रों में उन्हें अलग अलग समाज से जोड़ कर देखा जाता है उसी प्रकार स्वयं को वाल्मिकी वंशज मानने वालों में उपनाम भी ऐसे हैं जो लगभग सभी वर्गों की ओर इंगित करते हैं। महर्षि वाल्मीकि किस समाज या समूह से संबंधित हैं, इस पर भले मतभेद हों पर यह सर्व स्वीकार्य तथ्य है कि वे संसार के आदि कवि हैं, उन्होंने अपने पुरुषार्थ, परिश्रम या तप से अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। वे सर्व समाज में मार्गदर्शक और  पूज्य हैं। वे भारत में सामाजिक एकत्व और समरसता के प्रतीक हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संपूर्ण समाज और भूभाग को एक सूत्र में पिरोया। वे सबके लिये एक आदर्श थे तभी तो दशरथ नंदन राम ने उन्हें धरती पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया और वन में रहने के लिये उन्ही से सुगम स्थान पूछा। माता सीता उन्ही के आश्रम में रहीं और लवकुश को उन्ही ने शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दी। जिस प्रकार उनकी देशीय और सामाजिक व्यापकता मिलती है उससे एक बात स्पष्ट होती है कि वाल्मीकि जी सृष्टि के आरंभिक काल में समाज और राष्ट्र को एक स्वरूप में बांधने का प्रयास किया होगा।

इसीलिये उनका संदर्भ सभी समाजों में और देश के सभी स्थानों में मिलते हैं।महर्षि वाल्मीकि संस्कृत में काव्यविधा के जन्मदाता माने जाते हैं। यह मान्यता है कि संस्कृत की पहली काव्य रचना उन्हीं के स्वर में प्रस्फुटित हुई। भारत के लगभग सभी काव्य रचनाकारों ने अपना साहित्य सृजन करने से पहले उनकी वंदना की है। इनमें पूज्य आदिशंकराचार्य भी हैं और रामानुजार्य भी, राजाभोज भी हैं और संत तुलसीदास भी है। वैदिक काल से आधुनिक काल तक भारत में ऐसा कोई काव्य रचनाकार नहीं जिनने उनका स्मरण न किया हो। उन्होंने ऋषित्व ही नहीं देवत्व भी प्राप्त किया। वे ऋग्वेद के आठवें मंडल में ऋषि हैं। उनके द्वारा रचित वाल्मिकी रामायण भारत ही नहीं अपितु संसार भर का पहला महाकाव्य है। इसमें इस महाकाव्य में पच्चीस हजार श्लोक हैं और हर हजारवें श्लोक का आरंभ गायत्री मंत्र के प्रथम अक्षर होता है। उनकी रामायण रचना की दो विशेषताएं हैं। एक तो इसमें सूर्य और चन्द्र की स्थिति का सटीक उल्लेख है।इससे अनुमान है कि उन्हें अंतरिक्ष या सौर मंडल का भी ज्ञान था। दूसरा रामजी के वनवास काल के वर्णन में स्थानों के नाम, उनकी भौगोलिक स्थिति और मौसम का जो विवरण है। यह वर्णन कल्पना से संभव नहीं हैं। स्थानों के नाम और स्थिति यथार्थ परक है इससे लगता है कि उन्होंने रामायण लिखने से पूर्व उन्होंने राम जी के वन गमन पथ की यात्रा की, और अध्ययन किया। उसी आधार पर वर्णन। उनके वर्णन में सामाजिक एकत्व और समरसता को जिस प्रमुखता से विवरण दिया गया है। विशेषकर वनवासी समाज के विभिन्न समूहो और उप समूहों में एकरूपता के सूत्र में पिरोने और विभिन्न भूभाग पर निवास रत व्यक्तियों के बीच वे कोई एकत्व स्थापित करना चाहते थे। वे सही मायने में राष्ट्र जागरण और सामाजिक एकत्व के अभियान में सक्रिय रहे। उन्होंने रामायण के अतिरिक्त भी कुछ अन्य काव्य रचनाएं भी तैयार थीं।उन्होंने अपने पुरुषार्थ, परिश्रम या तप से अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। वे सर्व समाज के मार्गदर्शक और  पूज्य हैं। वे भारत में सामाजिक एकत्व और समरसता के प्रतीक हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संपूर्ण समाज और भूभाग को एक सूत्र में पिरोया । वे सबके लिये एक आदर्श थे तभी तो दशरथ नंदन राम ने उन्हें धरती पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया और वन में रहने के लिये उन्ही से सुगम स्थान पूछा। माता सीता उन्ही के आश्रम में रहीं, लव और कुश को उन्ही ने शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान दिया। उनकी स्मृतियाँ भारत के हर क्षेत्र में हैं। नेपाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, विहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ ही नहीं सुदूर केरल में भी वाल्मीकि जी के मंदिर हैं।

नेपाल के चितवन जिले में वाल्मीकि मंदिर है तो उत्तर प्रदेश में तमसा, सोना और सप्त गंडक के संगम स्थल को उनकी जन्म स्थली और आश्रम होने की मान्यता है। एक दावा प्रयाग से लगभाग चालीस किलोमीटर दूर झाँसी मानिकपुर रोड पर तो एक दावा चित्रकूट में होने का है। एक दावा सीतामढी के बिठूर में तो एक दावा हरियाणा फतेहाबाद में और कोई मध्यप्रदेश के मंडला जिले में नर्मदा संगम पर बने वाल्मीकि आश्रम को ही उनकी तपोस्थली मानता है। इन सभी स्थानों पर शरद पूर्णिमा को ही पूजन भंडारे होते हैं। कहीं कहीं तो चल समारोह भी निकलते हैं। श्रीमद् वाल्मीकि रामायण महाकाव्य एक विशाल अक्षय वट वृक्ष है। यह महाकाव्य भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को अपने विशालकाय आंचल में संजोए हुए है। वाल्मीकि रामायण में 40 हजार श्लोक हैं।?कुल सात सर्ग हैं। प्रत्येक सर्ग का अपना विशेष महत्व है। इस महाकाव्य का सुंदरकांड श्री वाल्मीकि रामायण की आत्मा है। रामायण का अन्तिम सर्ग लव-कुश?कांड इन सात सर्गो से अलग है। इस कांड में लव-कुश की वीरता, शौर्य, रामायण गान, अश्वमेध यज्ञ, पिता-पुत्रों के युद्ध में अनगिनत सैनिकों का घायल होना, चारों भाइयों का पराजित होना और सीता जी का महर्षि जी से युद्ध शांत करने का अनुरोध?करना ताकि पिता-पुत्रों के युद्ध में कुछ?अनर्थ न हो जाए, का वर्णन किया गया है। महर्षि वाल्मीकि जी का युद्ध भूमि में आना और अमृतवर्षा से पुन: सब को जीवित करना, श्री राम का पुत्रों लव-कुश से मिलाप और भगवान वाल्मीकि जी का श्री राम से कहना, ‘सीता, तन-मन, आत्मा एवं बुद्धि से पूर्णत: पवित्र है।यदि इसमें लेशमात्र भी अन्तर हो तो मेरी युग-युगान्तर की तपस्या भंग हो जाए।’ यही संयोग, यही अमर मिलन, यही राम परिवार का जयघोष एवं यही तप-तपस्या-तपस्वी का कथन सत्य है।

महर्षि वाल्मीकि जी का रामायण महाकाव्य, ज्ञान, विज्ञान, भाषा ज्ञान, ललित कलाओं, ज्योतिष शास्त्र, आयुव्रेद-इतिहास-राजनीति का केन्द्र बिन्दु है। भगवान वाल्मीकि जी के अनुयायी बन, शिक्षा के प्रति सजग होकर अपनी सन्तानों को तन-मन-धन से जहां प्रेरित करना चाहिए?वहीं बुराई का नाश कर उन्नति की ओर बढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। शिक्षा विकास रूपी ताले की चाबी है। इसी से ही हम अपने भावी जीवन को उन्नत बना सकते हैं। शिक्षा के प्रति जागरूकता ही, अधिकारों के प्रति सच्ची लगन ही हमारे समाज को, हमारी सन्तानों को अच्छे मार्ग की ओर ले जा सकती है।? इस प्रकार आदिकवि महर्षि वाल्मीकि एक लोकजयी व कालजयी कवि थे। उन्होंने अपनी रचनाओं रामायण, योगवसिष्ठ और अक्षर लक्ष्यादि के माध्यम से एक लोक कल्याणकारी, परिवार, समाज, राष्ट्र और व्यक्ति वसुधैव कुटुम्बकम के जीवन्त स्वरूपण का निदर्शन किया है। वाल्मीकि रामायण काव्यसौन्दर्य, सौष्ठव भांपा अलंकार और काव्योपदेश सभी दृष्टियों से एक “न भूतो न भविष्यति” रचना है।आज भी हजारों-हजार काव्य न केवल भारतवर्ष अपितु समग्र विश्व में राम कथा का आधार लेकर लिखे जा रहे हैं। किसी ने ठीक ही कहा है-
“यावत स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतलो।
तावद रामायणी कथा लोकेषु प्रचरिष्यते इति।।”
यह धारणा ही इस पवित्र-पुनीत जन्मोत्सव वाल्मीकि जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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