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Pyoli Flower Uttarakhand: इस खास फूल के खिलने से पहाड़ों पर शुरू होता है बसंत, गाए जाते हैं गीत

Pyoli Flower: इस खास फूल के खिलने से पहाड़ों पर शुरू होता है बसंत, गाए जाते हैं गीत

चमोली: उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में बसंत के दिनों में वैसे तो कई तरह के रंग-बिरंगे फूल अपनी मदमस्त करने वाली सुगंध से सभी को अपनी ओर खींचने का काम करते हैं, लेकिन इन सबके फरवरी-मार्च में हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों में एक विशेष प्रकार का पीले रंग का फूल खिलता है, जिसके खिलने से पहाड़ों में बसंत का आगाज माना जाता है. इस फूल को ‘प्यूली’, ‘फ्यूली’ या ‘फ्योंली’ के नाम से जाना जाता है.

यह फूल दिखने में छोटा और पीले रंग का होता है. प्यूली के फूल से सभी की भावनाएं जुड़ी हैं. यह फूल हिमालय की सुंदर और हसीन वादियों में खिलता है. इस फूल को एक सुंदर राजकुमारी का दूसरा जन्म भी मानते हैं. गढ़वाली गीत ‘फ्योंली ज्वान हुवेगी’ जैसे तमाम गीतों में भी इस फूल की सुंदरता की तुलना स्त्री के यौवन की सुंदरता को व्यक्त करने ले लिए की गई है. यह फूल जिंदगी में सकारात्मकता का संदेश देता है.

फ्योंली फूल का वैज्ञानिक महत्व

फ्योंली फूल का वैज्ञानिक नाम Reinwardtia Indica है. इसे yellow flax और golden girl भी कहते हैं. यह हिमालयी क्षेत्रों और उत्तरी भूभाग में होता है. फ्योंली का फूल लगभग 1800 मीटर की ऊंचाई पर खिलता है. इसकी चार पंखुड़ियां होती हैं और फूल में कोई खुशबू नहीं होती. इस फूल का वैज्ञानिक नाम हालैंड के प्रसिद्ध वनस्पतिज्ञ कैस्पर जॉर्ज कार्ल रीवार्ड्ट के नाम पर पड़ा है.

ये है फ्यूली की कहानी

इसके नाम के पीछे कई कहानियां सुनने को मिलती हैं. कहा जाता है कि देवगढ़ के राजा की इकलौती पुत्री का नाम फ्योंली था, जो अत्यधिक सुंदर व गुणवान थी. लेकिन गंभीर बीमारी के चलते उसकी असामयिक मौत हो गई. राजमहल के जिस कोने पर राजकुमारी की याद में राजा द्वारा स्मारक बनाया गया था, उस स्थान पर पीले रंग का यह फूल खिला, जिसका नाम फ्योंली रखा गया. युवा कवयित्री ममता राज शाह कहती हैं कि पहाड़ों में फ्योंली का खिलना बसंत के आने की सूचना देता है, तो कवियों के लिए उनकी रचना का विषय भी देता है. इसकी सुन्दरता से कवि अपनी कविता की रचना करते हैं.

आयुर्वेदिक गुणों से भरपूर फ्यूली

वरिष्ठ पत्रकार जगदीश पोखरियाल बताते हैं कि पहाड़ों में बसंत के आगमन का संदेश लाने वाली फ्योंली न सिर्फ अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यह एक आयुर्वेदिक औषधि भी है, जो कि कई प्रकार के रोगों के इलाज में प्रयुक्त की जाती है. वह बताते हैं कि फ्योंली की सुंदरता को लेकर आज भी पहाड़ों में खूब गीत गाए जाते हैं. पहाड़ों में खूबसूरत पीले रंग की फ्योंली का खिलना बसंत के आने की निशानी है ही और साथ ही पहाड़ों में लाल बुरांश खिलने से तो प्रकृति की सुंदरता में चार-चांद लग जाते हैं.

हल्द्वानी: कुमाऊं की हरी-भरी पहाड़ की वादियां अपनी सुंदरता और लोक संस्कृति के लिए जानी जाती हैं. शरद ऋतु के बाद कुमाऊं के पहाड़ के बगीचे और खेत-खलिहान रंग-बिरंगे फूलों के साथ-साथ फलों से भी लहलहा रहे हैं. वहीं पहाड़ों में इन दिनों वसंत के आगमन का प्रतीक प्योली फूल जंगलों के वातावरण में चार चांद लगा रहे हैं. जंगली प्रजाति के यह फूल जब खिलते हैं तो पूरे वातावरण में वसंत के आगमन का आभास हो जाता है.

ये है प्राचीन मान्यता: कहानी है कि एक समय था जब पहाड़ों में देवगढ़ के राजा का राज हुआ करता था. राजा की इकलौती पुत्री का नाम प्योली था. राजा अपनी पुत्री से बहुत प्यार करता था. एक दिन उसकी बीमारी के चलते मौत हो गई. जिसके बाद राजा ने अपनी पुत्री की याद में स्मारक बनाया, जहां स्मारक पर एक पीले रंग का फूल निकला. जिसके बाद राजा ने उस फूल का नाम अपने पुत्री के नाम पर प्योली रख दिया.

क्या कहते हैं पर्यावरण प्रेमी: पर्यावरण प्रेमी तनुजा जोशी के मुताबिक वैसे तो पहाड़ों में सैकड़ों प्रकार के फूल उगते हैं. लेकिन पहाड़ों के फूलों का अपना अलग ही महत्व है. फूल जहां प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाने जाते हैं तो वहीं कई औषधियों से भी भरपूर हैं. प्योली फूल वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक माना जाता है और इन दिनों पहाड़ों पर चारों ओर पीले फूल अपनी छटा बिखेर रहे हैं. ये फूल पहाड़ों की प्राकृतिक सुंदरता के प्रतीक हैं. प्योली फूल का बॉटनिकल नाम रेनवासिया इंडिका है.

हल्द्वानी वन अनुसंधान केंद्र के वन क्षेत्राधिकारी और फूलों पर रिसर्च करने वाले मदन बिष्ट के मुताबिक पहाड़ों में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं. मौसम ने इस बार प्योली फूल को अपने समय से पहले खिलने को मजबूर कर दिया है. प्योली फूल औषधियों से भरपूर है और यह कई तरह की बीमारियों के इलाज में रामबाण बताया जाता है. प्योली फूल अक्सर ठंड की समाप्ति और गर्मी की शुरुआत में खिलता है.

Phuldei festival and Story of Phyoli flower

यह त्यौहार छोटे बच्चे मनाते हैं। राज्य का प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई चैत्र मास की प्रथम तिथि से आठ दिनों तक मनाया जाता है। उत्तराखंड के लोक जीवन में, यहां की संस्कृति में फूलदेई की खास जगह है। नववर्ष के आगमन पर स्वागत की परम्परा वैसे तो पूरी दुनिया में पाई जाती है पर फूलदेइ पर्व के रूप में देवतुल्य बच्चे हिन्दू समाज के नव वर्ष का स्वागत करते हैं। फूलदेई के त्यौहार को मनाने के लिए बच्चे शाम को फ्योंली, बुरांश के फूल और पयाँ के पत्तों को तोड़कर अपनी डलियों-कुंजियों (टोकरियों) में भरते हैं। इसके बाद बच्चे ब्रह्म मुहूर्त में उठकर साथ में मिलकर घर-घर जाकर सभी घरों के दरवाजों पर फूल डालते हैं। बच्चे फूल डालने के साथ ही मधुर लोकगीत भी गाते हैं।
पहाड़ में गांव के लोग बच्चों को लयाँ (भुनी हुई चौलाई), गुड़ या अन्य कोई खाने की चीज और थोड़े बहुत पैसे देते हैं। फूलदेई के अंतिम आठवें अंतिम दिन बच्चे अपने आराध्य की डोली की पूजा करके विदाई कर त्योहार सम्पन्न करते हैं। फूलदेई मनाने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है। उत्तराखंड में कहीं इस डोली को फूलों की देवी माना जाता है तो कहीं बच्चे इन्हें राजा या देवता कहते हैं। उत्तराखंड की संस्कृति में इस त्यौहार के साथ राजकुमारी फ्योंली की एक लोक कथा भी जुड़ी हुई है।

फूलदेई की परंपरा लोकगीतों और लोककथाओं के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती रही। उत्तराखंड में पर्यावरण बचाने की ये मुहिम सदियों से चली आ रही है। बच्चों को फूलदेई के माध्यम से पहाड़ से, पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों और नदियों से प्रेम करने की सीख दी जाती है। प्रकृति को पहाड़ के लोक जीवन से जोड़ा जाता है, और कुछ कथाएं बताई जाती हैं। ऐसी ही कथाओं में से एक, पहाड़ों में चैत्र मास में होने वाले पीले रंग के फूल फ्यूंली को पहाड़ के लोक जीवन से जोड़ती है।

राजकुमारी फ्योंली की कहानी

दरअसल हिंदू नववर्ष के इस समय उत्तराखंड के पहाड़ों पर एक विशेष पीले रंग का सुन्दर फूल खिलता है। जिसे फ्योंली कहते हैं। कहा जाता है कि पहले हिमालय के पहाड़ों में एक राजकुमारी रहती थी। जिसका नाम फ्योंली था। जैसे जैसे फ्योंली बड़ी होती गयी वो बीमार रहने लगी और मुरझाने लगी। उसके मुरझाने पर पहाड़ के पेड़ पौधे मुरझाने लगते। पर फ्योंली बीमार ही होती चली गयी। वो पहाड़ में सबकी लाडली राजकुमारी थी, उसे देख पंछी उदास रहने लगे। फिर एक दिन फ्योंली हमेशा के लिए मुरझा गयी, उसके बाद फ्योंली को जंगल में उसके पसंदीदा पेड़ के पास मिट्टी में दबा दिया गया। जिस जगह पर फ्योंली को मिट्टी में दबाया गया था वहां एक पीला फूल उग आया, जिसका नाम फ्योंली के नाम पर रख दिया गया। लोक बाल कथाओं में कहा जाता है कि फ्योंली की याद में छोटे बच्चे फूलदेई का त्यौहार मनाते हैं।

Source:-Naveen Chandra (MA,Bed) Rokhtak University.

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