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“Shyam Benegal: The Master Storyteller Saga of Indian Cinema”

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भारत में समानांतर सिनेमा के जनक श्याम बेनेगल का निधन 90 साल की आयु में हुआ। उन्होंने मुंबई के अस्पताल में अंतिम सांस ली। 50 साल पहले एक ऐसा समय भी आया जब बेनेगल ने 5 लाख किसानों के दो-दो रुपये से पूरी फिल्म बना डाली। प्रधानमंत्री ने बेनेगल के निधन को एक सर्जनशील साधक का अंत बताया। पढ़िए इनके जीवन से जुड़ी बातें

जाने-माने फिल्मकार व समानांतर सिनेमा के जनक माने जाने वाले श्याम बेनेगल का 90 साल की आयु में निधन हुआ। भारत में 8 बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाले सिनेमा जगत के दिग्गज श्याम बेनेगल ने अंकुर, निशांत, मंथन और भूमिका और मंडी जैसी फिल्मों से सिनेमा जगत को अलग पहचान दिलाई। उनकी बेटी पिया ने बताया कि किडनी की समस्या से जूझ रहे बेनेगल ने मुंबई के अस्पताल में अंतिम सांस ली। पद्मश्री व पद्मभूषण से सम्मानित बेनेगल की टीवी शृंखला भारत एक खोज बेहद लोकप्रिय हुई थी।

5 लाख किसानों के दो-दो रुपये से बनी थी मंथन
वैश्विक स्तर पर धूम मचाने वाली फिल्म मंथन (1976) वर्गीज कुरियन के दुग्ध सहकारी आंदोलन से प्रेरित थी। इस फिल्म को बनाने के लिए पांच लाख डेयरी किसानों ने दो-दो रुपये दिए थे। जून में इस फिल्म का कान में फिर से प्रदर्शन किया गया।

पिता के कैमरे से पहली फिल्म शूट की…फिर सिनेमा का अद्भुत संसार रचते गए
श्याम बेनेगल ने 12 साल की उम्र में अपने फोटोग्राफर पिता श्रीधर बी. बेनेगल के कैमरे से पहली फिल्म शूट की थी। हिंदी सिनेमा में उनकी पहली फिल्म अंकुर थी। उन्होंने शबाना आजमी व स्मिता पाटिल के साथ कई यादगार फिल्में बनाईं। भारतीय फिल्मों के महान निर्देशक सत्यजीत रे उनकी प्रतिभा के कायल थे।

आम लोगों की जिंदगी और चेहरे को पर्दे पर कविता की तरह रचा
इस दिग्गज निर्देशक और पटकथा लेखक ने अंकुर, निशांत, मंथन, भूमिका, जुनून, मंडी जैसी फिल्मों से समाज को आईना दिखाते रहे। देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में शुमार- पद्मश्री, पद्म भूषण के अलावा भारतीय सिनेमा का शीर्ष पुरस्कार दादा साहब फाल्के से सम्मानित बेनेगल ने जुबैदा, द मेकिंग ऑफ द महात्मा, नेताजी सुभाष चंद्र बोसः द फॉरगॉटेन हीरो, आरोहन, वेलकम टु सज्जनपुर जैसी फिल्में रचीं। फिल्मी दिग्गजों ने तो यहां तक कहा कि बेनेगल ने आम लोगों की जिंदगी और आम लोगों के चेहरे को पर्दे पर कविता की तरह रचा। उन्होंने कुल 24 फिल्में, 45 वृत्तचित्र और 1,500 एड फिल्में बनाईं।

2018 में वी. शांताराम लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार
उनकी फिल्में प्रासंगिक सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर आधारित थी। जुनून (1979) देश के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान की उथल-पुथल भरी कहानी है। यह फिल्म एक ब्रिटिश महिला (नफीसा अली) और एक भावुक पठान (शशि कपूर) के बीच निषिद्ध प्रेम कहानी को दर्शाती है। इसे इसके दृश्यों और भावनात्मक तीव्रता के लिए सराहा जाता है। धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित सूरज का सातवां घोड़ा (1992) से अनूठी कहानी पेश की। एक कुंवारा (रंजीत कपूर) तीन अलग-अलग सामाजिक तबके की महिलाओं की कहानियां सुनाता है, जिन्होंने उसके जीवन को प्रभावित किया। प्रत्येक पात्र अलग था और समाज के विविध ताने-बाने का प्रतीक था। समानांतर सिनेमा आंदोलन के अग्रणी के रूप में पहचाने जाने वाले बेनेगल को 2018 में वी. शांताराम लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

राजनीतिक दबावों के खिलाफ वेश्यालय के संघर्ष
मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर के संस्मरणों से प्रेरित उनकी फिल्म भूमिका ने व्यक्तिगत पहचान, नारीवाद और रिश्तों के टकराव के विषयों पर गहराई से चर्चा की। मंडी (1983) वेश्यावृत्ति और राजनीति पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी पेश करती है, जिसमें सामाजिक और राजनीतिक दबावों के खिलाफ वेश्यालय के संघर्ष को दर्शाया गया है। इस फिल्म को मील का पत्थर माना जाता है। कलयुग महाभारत से प्रेरित फिल्म है। इसमें एक परिवार के बीच कारोबार को लेकर होने वाली दुश्मनी को दिखाया गया है।

वेलडन अब्बा, अब अलविदा!
श्याम बेनेगल के निधन पर मशहूर अभिनेता यशपाल शर्मा ने कहा, ‘रविवार को ही मेरी किसी से बात हो रही थी कि श्याम बेनेगल साहब को भारत रत्न मिलना चाहिए। सिनेमा में सबसे ज्यादा योग्य वही हैं। अभी उनका जन्मदिन था, लेकिन मैं जा नहीं पाया। उनका जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है। मैंने उनके साथ ‘वेलकम टू सज्जनपुर’, ‘समर’ और ‘वेलडन अब्बा’ में काम किया। वह बहुत ही अच्छे इन्सान थे। श्याम बेनेगल ने सिनेमा को एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली कलाकारों से वाकिफ कराया, चाहे नसीरुद्दीन शाह हों, शाबाना आजमी हों, ओम पुरी, अमरीश पुरी या फिर स्मिता पाटिल हों। ऐसे कलाकारों की लंबी फेहरिस्त है। वह जानते थे कि इन कलाकारों में सिनेमा को नई दिशा देने की ताकत है। उन्होंने हमेशा आम लोगों का सिनेमा बुना, जिससे आम आदमी को लगेगा कि उनकी बात कहने वाले लोग भी हैं। ‘मंथन’, ‘मंडी’, ‘भूमिका’ जैसी फिल्में इसका उदाहरण है।

सत्यजीत रे के बाद श्याम बेनगल ही थे, जिन्होंने क्रांतिकारी सिनेमा रचा
बेनेगल साहब अपनी स्क्रिप्ट और कहानी को लेकर बहुत आश्वस्त रहते थे। उनको पता होता था कि सीन को कितना विस्तृत लेना है और उसके बाद ही वह आगे बढ़ते थे। मुझे फिल्म ‘समर’ का एक किस्सा याद आ रहा है। पूरे दिन की शूटिंग चली। लंबा सीन था, लेकिन शाम को पैकअप के बाद पता चला कि अभिनेत्री ने कान की बाली ही नहीं पहनी थी। अगले दिन शूटिंग की छुट्टी थी और श्याम जी सेट से निकल गए थे। मैंने उनसे कहा कि अभी बताइए, क्या करना है। अभी स्थिति हमारे नियंत्रण में है। उन्होंने एक वाक्य में कहा, कल शूटिंग होगी और फोन रख दिया। अगले दिन फिर से बुलाकर दोबारा पूरे परफेक्शन के साथ सीन पूरा हुआ। अपने काम को लेकर उनका यह समर्पण था। श्याम बेनेगल जी ने सिनेमा में एक नए दौर की शुरुआत की और आज उस युग का अंत हो गया। वो सिनेमा में एक क्रांति का दौर था। मैं मानता हूं कि सत्यजीत रे के बाद श्याम बेनगल ही थे, जिन्होंने क्रांतिकारी सिनेमा रचा।

Credit-Amar Ujala

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