विश्व के राजनीतिक मानचित्र पर एक नया स्वतंत्र और सम्प्रभुता सम्पन्न देश की 53 वीं जयन्ती 1971 के भारत पाक युद्ध की याद ताजा हो जाती है। उस युद्ध में भारत ने विश्व मंच पर अपनी धाक तो जमाई ही साथ ही पड़ोस में मानवता और मानवाधिकारों की रक्षा के लिये जो कुर्बानियां और कीमत अदा की वह भी विश्व में अपने आप में एक मिसाल है। यह युद्ध ही ऐसा असाधारण था कि उसकी टीस पाकिस्तान को युगों युगों तक सताती रहेगी। इस यु़द्ध की चर्चा अक्सर होती रहती है। मगर उसमें कुछ ऐसे भी तथ्य रहे जो कि सामान्यतः चर्चाओं में नहीं आते। इसलिये विजय दिवस के उपलक्ष्य में उन भूले बिसरे तथ्यों को उजागर करना उन शहीदों, भारत के पराक्रमियों और स्वाधीनता सेनानियों के लिये सच्ची श्रद्धांजलि होगी
1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, जिसने बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्थापित किया, दक्षिण एशिया के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। जबकि युद्ध के कई पहलू व्यापक रूप से ज्ञात हैं, कुछ कम ज्ञात या छिपे हुए तथ्य हैं जो शायद व्यापक रूप से चर्चा में नहीं आते। हालांकि इस युद्ध में महिलाओं को अकल्पनीय पीड़ा झेलनी पड़ी, लेकिन उन्होंने अपने साहस और बलिदान से यह साबित कर दिया कि वे केवल पीड़िता नहीं थीं, बल्कि संघर्ष की महत्वपूर्ण नायिकाएँ भी थीं। उनकी कहानियाँ बांग्लादेश की आजादी और राष्ट्रीयता का अभिन्न हिस्सा हैं।बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में महिलाओं ने बहादुरी और साहस के साथ कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। हजारों महिलाओं ने मुक्ति बाहिनी (स्वतंत्रता सेना) में शामिल होकर दुश्मन के खिलाफ लड़ाई लड़ी।उन्होंने दुश्मन के ठिकानों पर हमले किए, हथियार और गोला-बारूद का प्रबंधन किया, और गुरिल्ला रणनीतियों में योगदान दिया। महिलाएँ दुश्मन की सेना से जानकारी एकत्र करती थीं। वे स्थानीय गांवों में दुश्मन की गतिविधियों पर नजर रखकर मुक्ति संग्राम के नेताओं को खुफिया सूचनाएँ पहुंचाती थीं। बहुत सी महिलाओं ने घायल सैनिकों की देखभाल की, अस्पतालों में काम किया, और खाने-पीने की व्यवस्था की। उन्होंने शरणार्थी शिविरों में अन्य महिलाओं और बच्चों की मदद भी की। महिलाओं ने पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित करने में मदद की। कई महिलाएँ सक्रिय सेनानी बनीं, जिनमें प्रसिद्ध मुक्ति वाहिनी (मुक्ति सेना) की सदस्य भी थीं। कुछ महिलाएँ महत्वपूर्ण पदों पर थीं, जैसे कप्तान बांगाबाला और कमल खातून जो प्रतिरोध गतिविधियों में शामिल थीं।
युद्ध का हथियार के रूप में बलात्कार:
के युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने बलात्कार को एक रणनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। यह न केवल महिलाओं के खिलाफ हिंसा थी, बल्कि यह पूरे समाज को आतंकित और कमजोर करने की एक सोची-समझी योजना थी। अनुमान है कि करीब 2,00,000 से 4,00,000 महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाया गया।ये हमले विशेष रूप से बंगाली हिंदू और मुस्लिम महिलाओं पर केंद्रित थे।बलात्कार के जरिए पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेशी समाज को मानसिक और सांस्कृतिक रूप से कमजोर करने की कोशिश की। इसका उद्देश्य था कि समाज शर्म और कलंक के कारण टूट जाए।यह सिर्फ सैनिकों की व्यक्तिगत हिंसा नहीं थी, बल्कि सेना के उच्च अधिकारियों द्वारा समर्थित और निर्देशित थी। पाकिस्तानी सेना ने बलात्कार के लिए कैंप बनाए, जहां महिलाओं को कैद कर अत्याचार किया गया।युद्ध के बाद इन महिलाओं को “बीरांगना” के रूप में सम्मानित किया गया।हालांकि, कई महिलाओं को समाज से कलंक और बहिष्कार का सामना करना पड़ा।इस जघन्य अपराध ने दुनिया भर में मानवाधिकार संगठनों और सरकारों का ध्यान खींचा।बाद में बांग्लादेश सरकार और समाज ने पीड़ित महिलाओं को पुनर्वासित करने की कोशिश की।
भारत का गुप्त समर्थन, खुले हस्तक्षेप से पहले
जबकि दिसंबर 1971 में भारत का सैन्य हस्तक्षेप व्यापक रूप से ज्ञात है, भारतीय सरकार ने युद्ध के बढ़ने से पहले ही बांग्लादेशी स्वतंत्रता संग्रामों को गुप्त समर्थन देना शुरू कर दिया था। इसमें बंगाली गोरिल्ला सेनानियों का प्रशिक्षण, हथियारों की आपूर्ति और लॉजिस्टिक सहायता शामिल थी। मुक्ति वाहिनी, बंगाली स्वतंत्रता सेनानियों को भारतीय समर्थन से प्रशिक्षित और सुसज्जित किया गया था। भारतीय खुफिया एजेंसी RAW (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) ने इस प्रयास में गहरी भूमिका निभाई थी।
पाकिस्तानी सेना की खुफिया इकाई (ISI) की भूमिका
पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) ने युद्ध के दौरान सैन्य अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये विभिन्न सैन्य रणनीतियों को योजनाबद्ध करने और पूर्व पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में नियंत्रण बनाए रखने में शामिल थे। कुख्यात ऑपरेशन सर्चलाइट, जो 25 मार्च 1971 को शुरू हुआ, ने बंगाली विद्रोह को दबाने के लिए व्यवस्थित सैन्य कार्रवाई की। पाकिस्तानी सेना की ISI ने इन अभियानों का समन्वय किया, जिसके परिणामस्वरूप हजारों नागरिकों, बुद्धिजीवियों और नेताओं की हत्या हुई।
आवामी लीग का संघर्ष और राजनीतिक पृष्ठभूमि :
आवामी लीग, जिसे शेख मुजीबुर रहमान ने नेतृत्व दिया, वह मुख्य राजनीतिक बल था जो पूर्व पाकिस्तान के लिए स्वायत्तता की वकालत कर रहा था, और युद्ध की शुरुआत 1970 में हुई थी। लीग ने दिसंबर 1970 में पाकिस्तान के आम चुनावों में भारी जीत हासिल की, और राष्ट्रीय संसद में बहुमत प्राप्त किया। हालांकि, पाकिस्तान सरकार, जो जुल्फीकार अली भुट्टो और याहिया खान के नेतृत्व में थी, सत्ता हस्तांतरण में हिचकिचा रही थी। पश्चिम पाकिस्तान की केंद्रीय सरकार द्वारा आवामी लीग की जीत को स्वीकार न करना और पूर्व पाकिस्तान में स्वायत्तता की मांगें युद्ध के शुरू होने के महत्वपूर्ण कारण थे।
पाकिस्तान की पूर्वी कमान का आत्मसमर्पण:
पाकिस्तान के पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य बलों के कमांडर Lt. Gen.ए. ए. के. नियाजी का आत्मसमर्पण युद्ध के महत्वपूर्ण क्षण के रूप में याद किया जाता है। हालांकि, कम ज्ञात यह है कि 16 दिसंबर 1971 को ढाका के रामना रेसकोर्स मैदान में आत्मसमर्पण समारोह एक सुव्यवस्थित और प्रतीकात्मक घटना थी। आत्मसमर्पण भारतीय और मुक्ति वाहिनी की संयुक्त कमान के सामने हुआ, और पाकिस्तानियों ने औपचारिक रूप से सभी संघर्षों को समाप्त करने की सहमति दी। भारतीय सेना के कमांडर Lt. Gen. जगजीत सिंह ऑरोरा ने आत्मसमर्पण की शर्तों पर बातचीत की।
युद्ध के दौरान रिचर्ड निक्सन के नेतृत्व में अमेरिका पाकिस्तान का एक मजबूत सहयोगी था, मुख्य रूप से शीत युद्ध के कारण। निक्सन प्रशासन ने पाकिस्तान सरकार को राजनीतिक और सैन्य समर्थन प्रदान किया, भले ही पूर्व पाकिस्तान में व्यापक अत्याचारों की रिपोर्टें आ रही थीं। अमेरिका ने USS Enterprise, एक विमानवाहक पोत, बंगाल की खाड़ी में भेजा, जो एक प्रकार की धमकी के रूप में काम करता था, हालांकि इसने सीधे युद्ध में भाग नहीं लिया। युद्ध के दौरान अमेरिकी नौसेना के बेड़े की उपस्थिति ने पहले से ही जटिल अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में तनाव को बढ़ाया।
पूर्व पाकिस्तान की बंगाली जनसंख्या का आंदोलन को समर्थन:
पूर्व पाकिस्तान की अधिकांश जनसंख्या स्वतंत्रता संग्राम के प्रति सहानुभूति रखती थी। हालांकि, बंगाली सैन्य अधिकारी और नागरिक सेवा के सदस्य पाकिस्तानी सेना के निशाने पर थे। बंगाली बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, और विद्वान भी पाकिस्तानी सेना द्वारा विशेष रूप से निशाना बनाए गए थे, क्योंकि यह क्षेत्र की सांस्कृतिक और बौद्धिक संरचना को नष्ट करने का जानबूझकर प्रयास था।
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध आधुनिक मीडिया युग के पहले दिनों में हुआ, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने संघर्ष को कवर किया। युद्ध ने महत्वपूर्ण मीडिया ध्यान आकर्षित किया, और हिंसा, पीड़ा और शरणार्थी संकट की छवियाँ इस कारण के लिए वैश्विक जागरूकता बढ़ाने में मददगार साबित हुईं।हालांकि, पाकिस्तानी सरकार द्वारा मीडिया कवरेज पर सेंसरशिप के प्रयास, खासकर पश्चिमी रिपोर्टरों के खिलाफ, अत्यधिक थे, और कई विदेशी पत्रकारों को अत्याचारों के पैमाने को दस्तावेज़ करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
युद्ध ने क्षेत्र में सबसे बड़े शरणार्थी संकटों में से एक को जन्म दिया। 10 मिलियन से अधिक शरणार्थी पूर्व पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत की ओर पलायन कर गए, मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा राज्यों में। इस विशाल शरणार्थी संख्या ने भारत के संसाधनों पर भारी दबाव डाला, जिससे दोनों देशों के बीच तनाव और बढ़ा। शरणार्थी संकट भारत के सैन्य हस्तक्षेप के लिए एक प्रमुख कारण था, क्योंकि भारत को डर था कि अशांति भारतीय क्षेत्र में फैल जाएगी और क्षेत्रीय अस्थिरता का कारण बनेगी।
1971 का संघर्ष अक्सर एक जातीय नरसंहार के रूप में संदर्भित किया जाता है, क्योंकि पाकिस्तानी सेना ने बंगाली नागरिकों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक नेताओं को बड़े पैमाने पर मारा। हताहतों की संख्या का अनुमान अलग-अलग है, कुछ स्रोतों का कहना है कि मृतकों की संख्या 300,000 से 3 मिलियन के बीच हो सकती है। पाकिस्तानी सेना ने नागरिकों के खिलाफ लक्षित हत्याएं, सामूहिक फांसी और अत्याचार किए, जिसमें ढाका भी शामिल था। इन अत्याचारों की व्यवस्थित प्रकृति पर बहुत बहस और अंतर्राष्ट्रीय चिंता रही है
युद्ध के बाद का प्रभाव दक्षिण एशिया के राजनीतिक परिदृश्य पर दीर्घकालिक प्रभाव डालने वाला था। बांग्लादेश की स्वतंत्रता ने क्षेत्र की भूराजनीतिक स्थिति को बदल दिया और भारत की विदेश नीति में बदलाव लाया। युद्ध अपराधों पर जो मुकदमे युद्ध के बाद चलाए गए, वे बांग्लादेश में एक विवादास्पद मुद्दा बने। जिन लोगों पर पाकिस्तानी सेना के साथ सहयोग करने का आरोप था, उन्हें मुकदमे और सजा दी गई, लेकिन इन मुकदमों ने न्याय, सुलह और राजनीतिक उद्देश्यों पर बहस को भी जन्म दिया।
डॉ . हरीश चन्द्र अन्डोला