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Uttarakhand में अधूरा सीवेज नेटवर्क, स्वच्छता की चुनौती – A Big Hurdle in Swacch Bharat

उत्तराखंड के 77 शहरों में अभी तक नहीं सीवेज नेटवर्क

उत्तराखंड की तस्वीर देखें तो यहां कुल क्षेत्रफल का 71.05 प्रतिशत वन भूभाग है और शेष में शहर, गांव व खेती की भूमि है। गंगा, यमुना जैसी सदानीरा नदियों का उदगम भी उत्तराखंड में ही है। इस परिदृश्य में यहां शहरों व गांवों में स्वच्छता के साथ ही यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि सीवेज की गंदगी किसी भी दशा में जीवनदायिनी नदियों में न जाने पाए। इसके लिए सीवेज नेटवर्क का होना आवश्यक है, लेकिन इसे लेकर तस्वीर किसी से छिपी नहीं है।केंद्र एवं राज्य सरकारें लगातार ही शहरी क्षेत्रों में ठोस एवं तरल अपशिष्ट के प्रबंधन पर जोर दे रही हैं। शहरी विकास विभाग के तहत ही कई योजनाएं संचालित हो रही हैं तो नदियों में सीवेज की गंदगी न जाने पाए,

इसके लिए नमामि गंगे परियोजना चल रही है। बावजूद इसके उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में सीवेज नेटवर्क की स्थिति चिंताजनक है।राज्य में शहरी क्षेत्र तो बढ़ रहे हैं, लेकिन वहां सीवेज नेटवर्क स्थापित करने की रफ्तार बेहद धीमी है। अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि वर्तमान में 77 शहर ऐसे हैं, जहां सीवेज नेटवर्क है ही नहीं। निकट भविष्य में नगरीय स्वरूप ले चुकी नौ ग्राम पंचायतें भी शहरी क्षेत्र के रूप में अधिसूचित हो जाएंगी तो यह संख्या बढ़कर 86 पहुंच जाएगी।हैरत यह है कि जिन 28 शहरों में सीवेज नेटवर्क है भी, वह आधा-अधूरा है। यानी इनमें कोई शहर पूरी तरह से सीवेज नेटवर्क से आच्छादित नहीं है। पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड के लिए यह स्थिति बेहतर तो नहीं कही जा सकती।यद्यपि, पिछले 10 वर्षों में नमामि गंगे परियोजना के अलावा शहरी विकास विभाग के अंतर्गत बाह्य सहायतित योजनाओं में सीवेज नेटवर्क विकसित किया जा रहा है, लेकिन इसकी रफ्तार बेहद धीमी है।

मात्र 28 शहरों में ही कुछ क्षेत्रों में सीवेज नेटवर्क इसका उदाहरण है। राजधानी देहरादून समेत 11 नगर निगमों के क्षेत्र भी पूरी तरह से सीवेज नेटवर्क से आच्छादित नहीं हो पाए हैं। कहा जा रहा है कि बाह्य सहायतित परियोजना के अंतर्गत ऋषिकेश व हरिद्वार शहर अगले साल तक पूरी तरह सीवेज नेटवर्क से जुड़ जाएंगे।यह सही है कि सीवेज नेटवर्क विकसित करने के लिए बड़े बजट की आवश्यकता होती है। पूर्व में सभी शहरों में सीवेज नेटवर्क के दृष्टिगत कराए गए आकलन में बात सामने आई थी कि इस पर लगभग 20 हजार करोड़ का व्यय आएगा। निश्चित रूप से राज्य के आर्थिक संसाधनों को देखते हुए राशि बहुत बड़ी है, लेकिन इसे लेकर चरणबद्ध ढंग से तो आगे बढ़ा ही जा सकता था। यद्यपि, अब शहरों में सीवेज नेटवर्क के दृष्टिगत गहन अध्ययन कराने का निर्णय लिया गया है। नाजुक पर्यावरण वाले पहाड़ों पर होटलों और होम-स्टे सुविधाओं की बढ़ती संख्या के कारण न केवल अर्ध शहरी क्षेत्र, कस्बे बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी शहरीकरण की भारी दर देखी जा रही है। उदाहरण के लिए नैनीताल और भीमताल क्षेत्र में प्रति वर्ष करीब 2 लाख आबादी का प्रवेश दर्शाते हैं, जहां इन क्षेत्रों की संयुक्त वास्तविक आबादी 14,000 से कुछ ऊपर है। उत्तराखंड में राज्य का केवल 31.7 प्रतिशत हिस्सा सीवर प्रणाली से जुड़ा है और बाकी केवल ऑन-साइट स्वच्छता प्रणालियों पर निर्भर है। वे अब उत्पन्न होने वाले गंदे पानी के प्रबंधन के लिए सोख्ता गड्ढों को अपना रहे हैं।

इसका मतलब यह होगा कि वे अब लाखों लीटर गंदा पानी जमीन में डाल देंगे। इससे ऊपरी मिट्टी और कमजोर हो जाएगी।शहरीकरण में वृद्धि के साथ-साथ एक और चिंताजनक बिंदु जो प्रकाश में आता है, वह बाथरूम से उत्पन्न होने वाले गंदे पानी की मात्रा है जो पहाड़ियों पर बने कई छोटे होटलों से बेरोकटोक बहता रहता है जो जमीन में रिसकर उसे अस्थिर करता है।सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, पहाड़ पर बसे शहर में हर व्यक्ति को रोजाना लगभग 70 लीटर पानी की आपूर्ति होती है। हालांकि, कुछ ऐसे भी पहाड़ के शहर हैं जहां पानी जरूरत से कम आपूर्ति किया जा रहा है। जैसे दार्जिलिंग में प्रति व्यक्ति पानी की आपूर्ति 22 से 25 लीटर रोजाना की जा रही है। लेकिन जो चिंताजनक पहलू है वह यह कि पानी आपूर्ति का लगभग 80 फीसदी पानी इस्तेमाल के बाद गंदे पानी (ग्रे वाटर) में बदल जाता है। बाथरूम और किचन से निकलने वाला पानी ग्रे-वाटर कहलाता है।

जबकि शौचालय से निकलने वाला पानी ब्लैक वाटर कहलाता है।अधिकांश पहाड़ी शहरों में गंदा पानी (ग्रे वाटर) खुली नालियों में बह रहा है जो जमीन में समा रहा है और नदियों में भी पहुंच रहा है। जो आखिरकार जमीन में पहुंच जाता है। जमीन में पानी के अवशोषण से निस्संदेह मिट्टी की नमी और भूजल भंडार में वृद्धि होगी। लेकिन नीचे की मिट्टी के प्रकार की थोड़ी समझ होनी चाहिए। डाउन टू अर्थ द्वारा विश्लेषण किए गए अधिकांश कस्बों में मिट्टी चिकनी, दोमट या रूपांतरित शिस्ट, फाइलाइट्स और गनीस है। ये सभी या तो ढीली मिट्टी हैं या कमजोर चट्टानें हैं।इसलिए बाथरूम से निकलने वाला गंदा पानी या शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट जल का प्रबंधन आवश्यक है।

Water pours from a pipe into a tank outside a factory at an apparel park in India. Photographer: Dhiraj Singh/Bloomberg
NEW DELHI, INDIA – MARCH 10: NDRF officials seen carrying out rescue operations after reports of a person fell down in a borewell at Delhi Jal Board’s Sewage Treatment plant near Keshopur on March 10, 2024 in New Delhi, India. The body of a man who had fallen into a 40-foot-deep borewell at a Delhi Jal Board water treatment plant here was pulled out after a nearly 12-hour-long rescue operation on Sunday, Water Minister Atish said that action would be taken against the official who was responsible for this sewage treatment plant. (Photo by Sanchit Khanna/Hindustan Times via Getty Images)

इसके साथ ही इस तरह के गंदे जल के प्रबंधन के लिए यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि नाजुक पर्यावरण वाले हिमालय पर किस तरह की सरंचना का निर्माण किया जाए जो त्रुटिपूर्ण न हो। साथ ही चट्टानों और मिट्टी के प्रकार को भी ध्यान रखना अहम हो जाता है। यदि इतनी बड़ी मात्रा में पानी या गंदा पानी जमीन में डाला जाता है, तो मिट्टी भारी नमी से भरी हो जाती है और आसानी से नाजुक हो जाती है। हालांकि, शिमला जैसे शहरों के पास वह आधिकारिक आंकड़े तक नहीं है

जिससे वो अपशिष्ट निपटान को लेकर आगे की ठोस योजना बना सके। राज्य में शहरी क्षेत्र तो बढ़ रहे हैं, लेकिन वहां सीवेज नेटवर्क स्थापित करने की रफ्तार बेहद धीमी है। अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि वर्तमान में 77 शहर ऐसे हैं, जहां सीवेज नेटवर्क है ही नहीं। निकट भविष्य में नगरीय स्वरूप ले चुकी नौ ग्राम पंचायतें भी शहरी क्षेत्र के रूप में अधिसूचित हो जाएंगी तो यह संख्या बढ़कर 86 पहुंच जाएगी।।(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।


डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला (लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)

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