Freesabmilega.com Samachar Uttarakhand Traditional Ramleela

Uttarakhand Traditional Ramleela

Uttarakhand Traditional Ramleela post thumbnail image

उत्तराखंड की रामलीला का एक समृद्ध

भारतीय उपमहाद्वीप में रामायण परम्परा सदियों से रही है। रामायण को लोकप्रिय बनाने में रामलीला एक सशक्त माध्यम रहा है। यह अनेक रंगमंचीय कलाओं यथा-संगीत, नृत्य, वादन, साज-सज्जा, गायन, अभिनय आदि का समन्वित रूप है।
रामलीला कब, कैसे और कहाँ प्रारंभ हुई इसका सर्वमान्य उत्तर देना तो संभव नहीं है, हाँ यह जरूर कहा जा सकता है कि रामायण की साहित्यिक परम्परा ने एक लोकप्रिय मंच का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।रामायण के पारम्परिक मंच की निरन्तरता को 10वीं, 12वीं शताब्दी के मध्य रचे गये महानाटक या हनुमान नाटक में देखा जा सकता है। यही नहीं कृष्णदत्त मिश्रा द्वारा रचित गौतम चंद्रिका के अनुसार वाल्मीकि रामायण को पढ़ते हुए ही तुलसीदास के मन में रामायण के नाटकीय अभिमंचन का विचार आया था। भारतीय उपमहाद्वीप में रामायण परम्परा सदियों से रही है। रामायण को लोकप्रिय बनाने में रामलीला एक सशक्त माध्यम रहा है।

यह अनेक रंगमंचीय कलाओं यथा-संगीत, नृत्य, वादन, साज-सज्जा, गायन, अभिनय आदि का समन्वित रूप है। रामलीला कब, कैसे और कहाँ प्रारंभ हुई इसका सर्वमान्य उत्तर देना तो संभव नहीं है, हाँ यह जरूर कहा जा सकता है कि रामायण की साहित्यिक परम्परा ने एक लोकप्रिय मंच का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।रामायण के पारम्परिक मंच की निरन्तरता को 10वीं, 12वीं शताब्दी के मध्य रचे गये महानाटक या हनुमान नाटक में देखा जा सकता है। यही नहीं कृष्णदत्त मिश्रा द्वारा रचित गौतम चंद्रिका के अनुसार वाल्मीकि रामायण को पढ़ते हुए ही तुलसीदास के मन में रामायण के नाटकीय अभिमंचन का विचार आया था। भारतीय उपमहाद्वीप में रामायण परम्परा सदियों से रही है। रामायण को लोकप्रिय बनाने में रामलीला एक सशक्त माध्यम रहा है। यह अनेक रंगमंचीय कलाओं यथा-संगीत, नृत्य, वादन, साज-सज्जा, गायन, अभिनय आदि का समन्वित रूप है। रामलीला कब, कैसे और कहाँ प्रारंभ हुई इसका सर्वमान्य उत्तर देना तो संभव नहीं है, हाँ यह जरूर कहा जा सकता है कि रामायण की साहित्यिक परम्परा ने एक लोकप्रिय मंच का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।रामायण के पारम्परिक मंच की निरन्तरता को 10वीं, 12वीं शताब्दी के मध्य रचे गये महानाटक या हनुमान नाटक में देखा जा सकता है। यही नहीं कृष्णदत्त मिश्रा द्वारा रचित गौतम चंद्रिका के अनुसार वाल्मीकि रामायण को पढ़ते हुए ही तुलसीदास के मन में रामायण के नाटकीय अभिमंचन का विचार आया था। 

पौड़ी के काण्डई गाँव में 1897 ई0 में रामलीला मंचन हुआ। कालांतर में रामलीला मंचन का यह क्रम टूट गया और पुनः 1906 से ही नियमित रूप से रामलीला मंचन आरम्भ हुआ। 1906 में पौड़ी में रामलीला भव्यता के साथ आरंभ करने में भोलादत्त काला, पी0सी0 त्रिपाठी, कोतवाल सिंह नेगी और तारादत्त गैरोला की अहम भूमिका रही । यह उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड के लिए अपनी प्रतिबद्धता एवं समर्थन प्रदर्शित करने और 1994 में तत्कालीन प्रदेश सरकार द्वारा आन्दोलनकारियों के नृशंस दमन एवं हत्या के विरोध स्वरूप 1994 से 1996 के बीच पौड़ी में रामलीला मंचन स्थगित रखा गया। 1997 में नए प्रयोग के साथ पुनः रामलीला मंचन आरंभ हुआ। पौड़ी की ही भाँति लैन्सडाउन में 1916 से आरंभ हुआ रामलीला मंचन भी अत्यंत लोकप्रिय है। 2016 में इसकी शताब्दी अत्यंत धूमधाम से मनाई गई। अब तक अल्मोड़ा और आसपास के अन्य कस्बों में भी रामलीला मंचन व्यापक स्तर पर होने लगा था। 1880 ई0 में अल्मोड़ा के ही कलाकारों की सहायता से नैनीताल में रामलीला का मंचन भी आरंभ हुआ। इसके पश्चात् कुमाऊँ और गढ़वाल के सुदूर अंचलों में भी रामलीला मंचन का प्रसार हुआ। किन्तु अपने अभिमंचन की शैली और स्वरूप को लेकर चमोली में द्रोणागिरी एवं डिम्मर, और देहरादून आदि की रामलीलाओं का स्वरूप विशिष्ठ था।उत्तराखण्ड के विभिन्न अंचलों में रामलीला मंचन में कुछ न कुछ अन्तर दिखाई देता है। चमोली के द्रोणगिरि गाँव की रामलीला मात्र तीन दिन तक ही मंचित की जाती है। यह नहीं द्रोणगिरि में केवल रामजन्म, सीता विवाह एवं राम का राज्याभिषेक के प्रसंग ही मंचित किये जाते है। हनुमान से सम्बन्धित कोई भी घटना या दृश्य इसमें वर्जित है। हनुमान का नाम लेना भी निषेध है क्योंकि द्रोणगिरी पर्वत का एक हिस्सा हनुमान लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए संजीवनीबूटी सहित ले गए थे। द्रोणगिरी घाटी के लोग द्रोण पर्वत को अपने ईष्टदेव के रूप में पूजते हैं और हनुमान का यह कृत्य उनके ईष्ट देव की हत्या एवं उनके धार्मिक विश्वास पर कुठाराघात जैसा था,

इसलिए यहाँ के लोग हनुमान से घृणा करते हैं और उनके प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं। ऐसी अनेक विविधताएं भिन्न-भिन्न अंचलों में मंचित रामलीलाओं में आँचलिक जीवन एवं सांस्कृतिक मूल्यों के कारण दिखाई देती हैं। गर्मियों में अवकाश के चलते छात्र, शिक्षक एवं लोगो के गाँवों में उपलब्धता के कारण पात्रों के प्रबन्धन तथा दर्शकों की उपलब्धता ऐसे कारक हैं जिससे अनेक स्थानों पर रामलीला मई-जून में मंचित की जाती है। चमोली के विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व वाले गाँव डिम्मर की रामलीला भी अपने आप में ऐतिहासिक महत्व की है। चमोली के अनेक गाँवों में 1918 में पहली बार रामलीला ज्ञानानन्द डिमरी के 72 सदस्यीय संगीत मण्डल द्वारा मंचित की गई थी। डिम्मर गाँव में रामलीला की तिथि का निर्धारण पँचाग के आधार पर बसन्तपंचमी के दिन किया जाता है और मार्च में होली के अवकाश में रामलीला मंचन होता है। इस रामलीला की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके अधिकाँश संवाद संस्कृत में होते हैं। रावण-अंगद संवाद तो पूर्ण रूप से संस्कृत में होता है। टिहरी में भी रामलीला मंचन होता था किन्तु 1933 में टिहरी के राजा ने इसके मंचन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। 18 वर्ष बाद 1951 में नवयुवक अभिनय समिति ने रामलीला मंचन पुनः प्रारंभ किया। टिहरी नरेश रामलीला के लिए सदैव चंदा देते थे और आज भी यह परम्परा विद्यमान है।रंगमंचीय प्रस्तुति में कुँमाऊनी रामलीला आरंभ से ही ब्रज की रासलीला के साथ साथ नौटंकी शैली एवं पारसी रंगमंचीय तत्वों से प्रभावित रही है। इसमें पात्रों के हाव-भाव, वेषभूषा, रंग की साज-सज्जा तथा संगीतमय शैली में राग-रागनियों से समृद्ध गेयात्मक संवाद विशेष आकर्षण के बिन्दु हैं। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक तक कुमाऊँनी रामलीला में अनेक नए प्रयोग किए गए।

1941 ई0 में अल्मोड़ा में रामलीला में  छायाभिनय का प्रथम प्रयास भारत के सुप्रसिद्ध नृत्य सम्राट स्व0 उदयशंकर भट्ट ने किया था। उदयशंकर ने जीवंत पात्रों द्वारा छायाभिनय का दिग्दर्शन रानीधारा में खुले प्रांगण में किया था। गंगा-संवरण और वन-गमन के प्रसंगों में राम-लक्ष्मण-सीता की छाया छवियों की यह प्रस्तुति दर्शकों को भाव विभोर एवं अश्रुपूरित करने वाली रही होगी। रामलीला मंचन को सशक्त बनाते हुए दक्ष नृत्यकारों के छायाभिनय, अवनिका में उड़ते हुए और हनुमान के दृश्य ने तकनीकी वैचित्र्य का अनुपम पक्ष प्रस्तुत किया।कुमाऊँनी रामलीला में इसका सशक्त संगीत पक्ष इसकी मूलभूत विशेषताओं में से एक है। रामलीला में पात्रों के सुमधुर कंठ से निकलने वाले बिहाग, जोगिया, पीलू, भैरवी, कामोद, खम्माज, सोहनी, देश, जैजैवन्ती, मालकौस आदि रागों पर निबद्ध गीत कुमाऊँनी रामलीला की एक और विशेषता है। सन् 1948 में नन्दादेवी में आरंभ की गई रामलीला सन् 1972 तक काफी लोकप्रिय रही। सन् 1978 में श्री लक्ष्मीभंडार (हुक्का क्लब) में रामलीला का मंचन के साथ इन प्रस्तुतियों में एक नया अध्याय जुड़ा। देवीदत्त जोशी के प्रयास एवं कलाकारों की कुशलता के कारण अलमोड़ा के आसपास के विभिन्न गाँवों जैसे पाटिया, सरराली के सात ग्रामों, छखाता (भीमताल),  अल्मोड़ा के तीन स्थानों पर रामलीला का भव्य आयोजन होने लगा। पिथौरागढ़ में सन 1902 में रामलीला का प्रारम्भ हुआ।  तब से यहाँ नवरात्रियों में निरंतर रामलीला का आयोजन किया जा रहा है।1907 में रामदत्त जोशी ज्योर्तिविद द्वारा कुमाऊँनी रामलीला का प्रथम संस्करण प्रकाशित करवाया गया। इससे पूर्व हस्तलिखित पाण्डुलिपि के द्वारा रामलीला का आयोजन होता था। सन् 1927 में गांगीसाह द्वारा रामलीला नाटक लिखा गया। इसीतरह सन् 1972 में नन्दन जोशी ने श्री रामलीला नाटक प्रकाशित कराया। इस पुस्तक में लेखक ने कुमाऊँनी नाटक के आधार पर पं0 भवानी दत्त जोशी, बाबा खेमनाथ, योगराज, ने सन् 1983 एवं रामदत्त पाण्डे ने 1993 ई0 में रामलीला नाटक प्रकाशित करने का जिक्र किया है।नैनीताल में वस्तुतः रामलीला प्रदर्शन 1880 के पश्चात हुआ।

नैनीताल के नाटककारों ने बंगाली कलाकारों से प्रेरणा पाकर नाटक एवं रामलीला के मध्यमा से भारतीय संस्कृति के प्रसारण का कार्य किया। सर्वप्रथम 1882 ई0 में दुर्गापुर (वीरभट्टी नैनीताल) में अल्मोड़ा से आमन्त्रित अनुभवी कलाकारों ने रामलीला का प्रस्तुतीकरण किया। इसके पश्चात् तल्लीताल में रामलीला का आयोजन किया गया। जिसका संचालन गोविन्द बल्लभ पंत किया करते थे। सन् 1912 में कृष्णा साह द्वारा मल्लीताल में प्रथम बार रामलीला का मंचन किया गया। चेतराम ठुलघरिया द्वारा यहाँ पर स्थाई एवं पक्के मंच का निर्माण कराया गया। किया। नैनीताल के  शारदा संघ ने 1938 से 1950 तक रामलीला के आयोजन का भार उठाया और इसको रोचक बनाने के उद्देश्य से इसमें कुछ एकांकी नाटकों जैसे- सीताजन्म, श्रवणकुमार के प्रसंगों का समावेश किया ।रामलीला के मंचन को लेकर यह उल्लेखनीय है कि उस दौर मैं ध्वनि प्रसारक यंत्रों के अभाव में अभिनय हेतु उन्हीं पात्रों का चयन किया जाता था जो ऊँचे स्वर में बोल सकते हों। पारसी शैली के स्थान पर 1945 ई0 में नौटंकी शैली में रामलीला का मंचन होने लगा। पौड़ी में 1957 में विद्युतीकरण होना रामलीला के लिए किसी वरदान से कम न था। इसने रामलीला की भव्यता में चार चाँद लगा दिए।पौड़ी की रामलीला की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जैसे- इसका आरंभ स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा के साथ होता है ताकि यह निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो सके। इसकी पटकथा तुलसीकृत रामचरितमानस पर आधारित है, किन्तु इसकी शैली और संगीत शास्त्रीय है। चौपाई और दोहे बागोश्री, विहाग, देश दरबारी, मालकोष, जैजैवंती, आदि रागों में गाए जाते हैं। गढ़वाली लोकगीत भी संवाद की श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए आकर्षण में वृद्धि करते हैं। पहले पात्र स्वयं अपने संवाद गाया करते थे किन्तु अब पाश्र्वसंगीत द्वारा ही यह कार्य किया जाता है। इससे पात्र को संवाद गायन की चिन्ता से मुक्ति मिली और वह केवल अभिनय पर ही अपना ध्यानकेन्द्रित कर सकते हैं।

आरंभ में पार्श्व-गायन को प्रयोग के रूप में अपनाया गया लेकिन आज कुछ एक को छोड़ कर अधिकाँश पात्रों के लिए पार्श्व-गायन का ही उपयोग किया जाता है। पिछले 25 वर्षों से भक्तिपूर्ण भजन गायन के साथ नृत्य रामलीला का एक विशिष्ट अंग बन गया है। उत्तराखंड की रामलीलाओं में महिला पात्रों की भागीदारी का श्रेय पौड़ी की रामलीला को जाता है। सन 2000 से यहाँ कुछ महिला चरित्रों की भूमिका महिला पात्रों द्वारा निभाये जाने का सिलसिला शुरू हुआ जिसे भरपूर जन समर्थन भी मिला है। रामलीला मंचन को लेकर समाज के विभिन्न वर्गों की हिस्सेदारी इसकी विशेषता रही है। देखा जाय तो पौड़ी, अल्मोड़ा, नैनीताल, कोट्द्वार, देहरादून जैसे स्थानों पर मुस्लिम समुदाय ने साज-सज्जा, ध्वनि प्रबंधन, या पुतले बनाने के कार्यों में अहम भूमिका निभाते हुए इसे और रोचक बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।उत्तराखंड में रामलीला मंचन में समसामयिक विषयों एवं घटनाक्रमों को भी शामिल करना इसकी प्रयोगधर्मिता का उदाहरण है। 1947 ई0 में स्वतंत्रता प्राप्ति के उल्लास एवं उत्साह की अभिव्यक्ति रामलीला के मंच में प्रमुख देवताओं के छायाचित्रों के साथ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का छायाचित्र रखे  जाने और  देशभक्ति के गीतों का रामलीला में समावेशन किया जाना  इस बात का प्रमाण है कि समसामयिक विषयों अथवा प्रसंगों को लेकर रामलीला आयोजक किस तरह संवेदनशील थे।रामलीला की पटकथा सामान्यतः तुलसीकृत रामचरितमानस पर आधारित अवधी भाषा में ही है किन्तु अनेक क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषा एवं बोलियों में भी पटकथा तैयार की गई है। उत्तराखण्ड में दो प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं में रामलीला की पटकथा तैयार की गयी और रामलीला मंचन भी इनके अनुसार होता रहा है। इस दिशा में प्रथम प्रयास बृजेन्द्र साह द्वारा किया गया था। साह ने कुमाँऊ तथा गढ़वाल के प्राचीन लोकगीतों की धुनों के आधार पर रामलीला की धुनें तैयार की। सन 1961 में 480 कुमाऊँनी तथा 1962  में 480 गढ़वाली गीतों में रामराज्य से लेकर राज्याभिषेक तक पूरी रामकथा लिख कर मंचन के लिए इसे तैयार किया।

इसके आधार पर कुमाऊँ तथा गढ़वाल के अनेक भागों में ब्रजेन्द्र शाह के निर्देशन एवं मार्गदर्शन में रामलीला मंचन किया गया। इस तरह स्थानीय प्रयोग-धर्मिता ने रामलीला को उत्तराखण्ड में विस्तार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।समाज के बदलते नजरिये के साथ आज रामलीला में पात्रों का टोटा अवश्य है, क्योंकि टेलीविजन व मीडिया के इस दौर में न तो बच्चों में रामलीला अभिनय के प्रति उत्सुकता है और नहीं संरक्षकों को बच्चे के कैरियर के दवाब में उसे पढ़ाई छोड़कर अभिनय कराने की मनसा. जहां कभी बच्चों में अभिनय की लालसा रहती थी, आज भौतिकता के दौर में बच्चे भी प्रलोभन से ग्रस्त हो रहे हैं. जबकि ये भूल जाते हैं कि हमारे सामने सिने कलाकार निर्मल पाण्डे प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जिन्होंने रामलीला में अभिनय से शुरूआत कर ही थियेटर तथा बालीवुड में ऊंचा मुकाम हासिल किया.हमारे समाज में रामलीला मंचन के इतिहास पर नजर डालें तो इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है. कहा तो यहां तक जाता है कि रामलीला मंचन उतना ही पुराना है, जितने मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम. कहा जाता है कि जब भगवान राम 14 वर्ष के वनवास पर गये तो अयोध्यावासियों ने इस अवधि में भगवान राम की बाल लीलाओं का मंचन किया. लेकिन इतना तो तय है कि गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस की रचना के बाद काशी आदि स्थानों पर रामलीला का मंचन किया जाने लगा. देश के भिन्न-भिन्न भागों में रामलीला मंचन और गायन की विभिन्न शैलियां प्रचलित हैं.कूर्मांचल को छोड़कर देश के उत्तर भारत में राधेश्याम तर्ज पर रामायण का गायन होता है, जिसकी गायन शैली कूर्मांचलीय रामलीला की अपेक्षा द्रुत है. कूर्मांचल में ज्योतिर्विद पं. रामदत्त जोशी कृत रामलीला का ही प्रायः मंचन किया जाता है. कूर्मांचलीय रामलीला में भी अल्मोड़ा की हुक्का क्लब व अन्य संस्थाओं द्वारा अभिनीत रामलीला, शास्त्रीय राग-रागिनियों पर आधारित है, सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा का एतिहासिक दशहरा महोत्सव उत्तराखण्ड में ही नहीं वरन पूरे देश में प्रसिद्ध हैं। यहां पर मुहल्लों मोहल्लों मंे बनाए जाने वाले रावण परिवार के विशालकाय पुतले अपने आप में आकर्षण का केन्द्र रहते हैं। बुराई पर अच्छाई के प्रतीक इस पर्व पर अल्मोड़ा में रावण परिवार के लगभग 2 दर्जन से अधिक कलात्मक पुतलो का निमार्ण स्थानीय कलाकारो द्वारा किया जाता है।

इन पुतलों को तैयार करने के लिए स्थानीय कलाकार लम्बे समय से कड़ी मेहनत करते हैं। जिनमें रावण, अहिरावण, मेघनाथ, कुम्भकर्ण, ताड़का, सुबाहु, देवान्तक सहित अन्य पुतले यहां शिखर तिराहे पर एकत्रित होेकर एक के पीछे एक होते हुए पूरे बाजार में घुमाए जाते हैं। और पीछे से कुमाऊॅ की ऐतिहासिक नंदादेवी रामलीला कमेटी अल्मोड़ा की ओर से भगवान श्री राम की शोभायात्रा डोला जयजयकार करते हुए चलता है। अन्त में स्थानीय स्टेडियम में देर रात्री को इन पुतलो का दहन किया जाता है। इन दिनों नगर के अलग अलग मुहल्लों में रावण परिवार के इन पुतलो को बनाया जा रहा है।
Body:इस दशहरा महोत्सव को सामाजिक सौहार्द का प्रतीक भी माना जाता है क्योंकि पुतलों के निर्माण में मुस्लिम धर्म के लोग भी सहयोग करते है। दशहरे से एक महीने पहले से ये पुतले बनने शुरू हो जाते है। जिनको बनाने में काफी मेहनत लगती है।अल्मोड़ा की रामलीला का इतिहास काफी प्राचीन है। कुमाऊॅं में सबसे पहले रामलीला की शुरूआत अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर से 1860 में हुई थी। पहले मात्र रावण का पुतला बनता था। माना जाता है कि दशहरे में 1865 में सबसे पहले रावण का पुतला बना था। तत्पश्चात धीरे धीरे पुतलों की संख्या बढ़ती गई। आज रावण परिवार के दो दर्जन से अधिक पुतले यहां बनाए जाते हैं। पिछले साल पुतलों की संख्या 28 थी। इस बार ही इसी के आसपास पुतले बनाए जा रहे हैं। इस दशहरा महोत्सव को देखने को देखने का कौतुहल इतना होता है कि इसे देखने के लिए अपने देश ही नहीं वरन विदेशों से भी लोग यहां आते हैं। बाहर से आने वाले पर्यटकों की आवक से इस दौरान शहर के होटल वगेैरह सभी हाउस फुल हो जाते हैं। अल्मोड़ा के दशहरा में हिन्दु मुस्लिम सभी धर्मो के लोग बढ़चढ़ कर भागीदारी करते है। स्थानीय कलाकारों द्वारा अल्मोड़ा में बनाये जाने वाले रावण परिवार के पुतले कलात्मकता लिए हुए होते हंै। ऐसी कलात्मकता पूरे देश में कही ंभी पुतलो में दिखाई नहीं देती जिसकी एक अलग पहचान है.जैसे पहाड़ के लोगों ने देश के महानगरों की ओर पलायन किया, कूर्माचलीय रामलीला का विस्तार भी लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई तथा देश के अन्य शहरों में विस्तार पाता गया. सीमित साधनों के बावजूद भवाली की रामलीला भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है तथा हजार-डेढ़ दर्शकों द्वारा प्रतिदिन रामलीला देखा जाना रामलीला के प्रति दर्शकों की पसन्द को दर्शाता है.

समय प्रवाह में यहां की रामलीला भी रंगमंचीय तकनीकों के उच्चतम स्तरों की ओर निरन्तर अग्रसर है. लेकिन अभी पाश्र्वगायन अभिनय की शुरूआत यहां नही हुई है, इसके बावजूद पात्रों की गायन शैली में इसकी कमी कभी नहीं अखरती. गौर करने की बात हैं, कि हम एक हिट फिल्म अथवा प्रिय नाटक को एक-दो, पांच ज्यादा से ज्यादा 10-12 बार देख लेते होंगे लेकिन एक स्थिति के बाद कई कई बार देखने से ऊब होना स्वाभाविक है. इसके विपरीत रामलीला एक ऐसा दृश्य-श्रव्य मंच है, जिसमें कथानक वही, दृश्य वही, पात्र भी आंशिक फेरबदल के साथ लगभग वही, लेकिन कोई ये कहता नही सुना कि हमने तो पिछले साल रामलीला देख ली है, अब क्या देखना? टीवी,हॉलीवुड, बॉलीवुड और मीडिया की चकाचैंध में भी रामलीला दर्शकों की इसे आस्था कहें या उत्सुकता अथवा रूचि  जिसने आयोजकों को सदैव प्रोत्साहित ही किया है जो रामलीला के भविष्य के लिए शुभ संकेत ही कहा जा सकता है. ।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला (लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

WhatsApp Group Join Now
Telegram Group Join Now
Instagram Group Join Now

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Post

Amazon Great Indian Festival Sale 2024: ये हैं Rs. 20 हजार के अंदर बेस्ट स्मार्टफोन डील्स!Amazon Great Indian Festival Sale 2024: ये हैं Rs. 20 हजार के अंदर बेस्ट स्मार्टफोन डील्स!

Amazon Great Indian Festival Sale 2024: iQOO Z9 5G के 8GB रैम और 128GB स्टोरेज वेरिएंट को 18,499 रुपये में लिस्ट किया गया है। SBI बैंक कार्ड के जरिए इस

Sarkari Naukri: सितंबर में सरकारी नौकरी की भरमार, 50 हजार से ज्यादा पदों पर होगी बंपर भर्तीSarkari Naukri: सितंबर में सरकारी नौकरी की भरमार, 50 हजार से ज्यादा पदों पर होगी बंपर भर्ती

हर साल करोड़ों भारतीय युवा सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करते हैं. ज्यादातर अभ्यर्थी आईटीबीपी कांस्टेबल भर्ती, यूपी पुलिस भर्ती, बिहार पुलिस भर्ती, इंडियन नेवी, एनटीपीसी, सीआईएसएफ जैसे विभागों में