Freesabmilega.com Culture Happy Dussehra 2024 असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है पर्व दशहरा

Happy Dussehra 2024 असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है पर्व दशहरा

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असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है पर्व दशहरा

मयार्दा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम सत्य, मयार्दा, न्याय, शांति, परोपकार और लोक कल्याण हेतु समर्पित थे। नैतिक, मानवीय और सामाजिक मूल्यों के प्रतीक मयार्दा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जीवन सद्मार्ग पर चलने एवं आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करता है। विजयादशमी का पर्व हमें आशा, उत्साह और ऊर्जा के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का संदेश देता है।

विजयादशमी के दिन मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम ने आतंक, अन्याय एवं अधर्म के पर्याय रावण पर विजय प्राप्त की थी। विजयादशमी शक्ति उपासना का उत्सव है। नवरात्रि के नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके भक्तों में शक्ति का संचार होता है। भगवान श्रीराम के समय से यह दिन बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। भगवान श्रीराम ने भी नौ दिनो तक रावण के साथ युद्ध करके दसवें दिन रावण का वध किया था, इसलिए इस दिन को भगवान श्रीराम के भी विजय के रूप में भी मनाते हैं। दशहरा यानी दस सिर वाले रावन का वध। भगवान राम ने रावण के दसों सिर का वध किया था।

जिसे प्रतिकात्मक रूप से 10 बुराईयों को खत्म करने से जोड़कर देखना चाहिये। पाप, काम, क्रोध, मोह, लोभ, घमंड, स्वार्थ, जलन, अहंकार, अमानवता और अन्याय वह दस बुराईयां हैं। जिसके खात्मे का हमें प्रण लेना चाहिये। विजयदशमी असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है। दशहरा भगवान राम और मां दुर्गा दोनों के महत्व को दशार्ता है। मान्यता है कि रावण को हराने के लिए श्रीराम ने मां दुर्गा की पूजा की थी और आशीर्वाद के रूप में मां ने रावण को मारने का रहस्य बताया था। हमें ऐसी कामना करनी चाहिए की दशहरा पर्व पर देश में भ्रष्टाचार, अत्याचार, अपराध, अन्याय, जातिवाद, आतंकवाद इत्यादि बुराईयों का भी समूल नाश हो जाए। रामराज सिर्फ कल्पना में नहीं बल्कि हकीकत में साकार करना है। देश की ज्वलंत समस्याओं का भी दहन होना जरूरी है। ईश्वर प्रेमियों के लिए दशहरा, दशमी या विजयादशमी आत्म चिंतन का पर्व है। यह पर्व हमें सोचने पर विवश करता है कि रावण को आज तक क्यों जलना पड़ रहा है और इसके विपरीत प्रभु भक्तों को आज भी पूजा जाता है। एक ओर सुग्रीव है जिसने प्रभु श्री राम के चरणों में शीश झुकाया और प्रभु का अनन्य भक्त बन गया। वहीं दूसरी ओर दसग्रीव है, तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाला प्रभु श्री राम का प्यारा नहीं बन पाया!यदि गहराई से देखा जाए तो एक ही कारण उभरकर सामने आता है और वह है ‘ग्रीव’ अर्थात गरदन।

रावण के दस शीश हैं परन्तु ‘सु’ भाव सुंदर नहीं हैं। जबकि बाली के छोटे भाई सुग्रीव के पास एक ही शीश है परन्तु ‘सु’ भाव सुंदरता से सजी हुई है। सुंदरता का संबंध यहाँ बाह्य जगत से नहीं अपितु आध्यात्मिक जगत से है। जो शीश भक्ति के सागर में डूब जाए, प्रभु के चरणों में नतमस्तक हो जाए वही सुंदर है। परन्तु जो ग्रीवा अहंकार से अकड़ जाए और प्रभु चरणों में झुकने का गुण भूल जाए वह बदग्रीव ही कहलाती है। आखिर क्या अंतर था दोनों के दृष्टिकोण में कि एक को हर दशमी पर जलाया जाता है और एक की गणना आज भी प्रभु श्री राम के परम भक्तों में की जाती है?सुग्रीव के अंदर संतों के प्रति विश्वास और आदर भाव था। उसके अंदर एक विशेष गुण था। जब भी उसके जीवन में कोई उलझन आई तो उसके हल के लिए उसने तत्क्षण साधु की शरणागत ली।

भगवान श्री राम और लक्ष्मण जी की ऋषिमुख पर्वत पर आगमन की सूचना मिलने पर सुग्रीव समझ नहीं पा रहा था कि यह दोनों सुंदर युवक बाली के भेजे हुए उसके दुश्मन हैं या फिर कोई कल्याणकारी मित्र? दुविधा कि इस घड़ी में उसने संत हनुमान जी की शरण ली। वहीं दूसरी ओर हनुमान जी जब रावण की सभा में पहुंचे तो उसने उनका अपमान किया। यही प्रमुख कारण था कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर, महाऋषि का पुत्र होते हुए भी रावण राक्षस पद को ही प्राप्त हुआ। रावण की दृष्टि मलीन थी इसीलिए तो उसे एक महान संत में केवल साधारण वानर ही दिखायी दिया और उनका निरादर किया।सुग्रीव और दसग्रीव दोनों के ही मन शंकालु प्रवृत्ति के थे। परन्तु दसग्रीव की प्रभु राम के प्रति शंका ने उसे उनका दुश्मन बना दिया। वहीं सुग्रीव ने भी प्रभु राम पर शंका की परन्तु अपनी शंका को सहज भाव से प्रभु चरणों में रखकर शंका का निवारण किया। उधर दसग्रीव ने ऐसे विचारों और व्यक्तियों का संग किया जो उसके शंकालु विचारों को और पुख्ता करते थे। मन भी दोनों का अहंकारी था परन्तु सुग्रीव के अहंकार की दीवार मिट्टी जैसी और दसग्रीव की चट्टान जैसी मजबूत थी।

माया के भ्रमित करने पर सुग्रीव ने वैराग्य को अपने हृदयासन पर स्थान दिया। तो वहीं दसग्रीव ने वैराग्य को इंद्र द्वारा मरवाने की कोशिश की।दसग्रीव भगवान शिव को अपना इष्ट मानता था और सुग्रीव प्रभु श्री राम को। दोनों ही इष्ट प्रथम बार अपने साधकों के पास स्वयं चल कर गए। सुग्रीव ने इसे प्रभु की कृपा समझा और उसके पश्चात वह ही सदैव अपने इष्ट के पास चलकर गया। वहीं दसग्रीव की हठ के कारण भगवान शिव को स्वयं प्रतिदिन चल कर उसके पास आना पड़ता था। दसग्रीव को यह अहं था कि वह भगवान शिव का इतना बड़ा भक्त है कि स्वयं त्रिलोकीनाथ शिव को उससे पूजा करवाने के लिए प्रतिदिन लंका आना पड़ता है। भाव कि उसने भक्ति को भी अहंकार का साधन बना लिया था। रावण के अहंकार की अग्नि में उसकी लंका और सम्पूर्ण कुल जलकर राख हो गए। सिर्फ श्री राम ही नहीं उन्हें मानने वाला हर भक्त रावण को जला कर अज्ञानता पर ज्ञान की विजय के इस पर्व को सदियों से मनाता चला आ रहा है। यह पौराणिक मान्यता है कि इसी दिन अयोध्या के राजा राम ने लंका के आततायी राक्षस राजा रावण का वध किया था । तब से लोग भगवान राम की इस विजय स्मृति को विजयादशमी के पर्व के रूप में मनाते चले आ रहे हैं ।

सामान्यतः दशहरा एक जीत के जश्न के रूप में मनाया जाने वाला त्यौहार हैं जश्न की मान्यता सबकी अलग-अलग होती हैं। जैसे किसानो के लिए यह नयी फसलों के घर आने का जश्न हैं पुराने वक़्त में इस दिन औजारों एवम हथियारों की पूजा की जाती थी, क्यूंकि वे इसे युद्ध में मिली जीत के जश्न के तौर पर देखते थे। लेकिन इन सबके पीछे एक ही कारण होता हैं बुराई पर अच्छाई की जीत किसानो के लिए यह मेहनत की जीत के रूप में आई फसलो का जश्न एवम सैनिको के लिए युद्ध में दुश्मन पर जीत का जश्न हैं। रावण संतों का खून टैक्स के रूप में लेता था आज भी ऐसे रावण हैं जो लोगों का खून मच्छर की तरह मानवता को ताख पर रखकर पी रहें हैं।इन कलियुगी रावण के अंत के लिये एक बार फिर रामकृष्ण के अवतरित होने की जरूरत है।हे राम! एक बार फिर से इन आतताइयों आतंकियों दुराचारियों के सर्वनाश के लिये इस धरती पर आपको आना होगा।आज हम विजय दशमीं के दिन रावण के पुतले को तो जलायेगें लेकिन जो मन के अंदर रावण बैठा है उसे जलाने की कोशिश नहीं करते हैं।विजय दसमी का पावन पर्व हमें बुराइयों से अच्छाइयों की तरफ अग्रसर होने का संकल्प लेने की प्रेरणा देता है।हमें आपको गौर करना होगा कि हमारी गतिविधियां कहीं रावण से तो नहीं मिलती हैं?।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला (लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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