भू-कानून पर गर्माती रही है उत्तराखंड की राजनीति, कई बार हुआ संशोधन; लेकिन नहीं बनी बात
प्रदेश में सशक्त भू-कानून की मांग को लेकर राजनीति गर्माती रहती है। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के अस्तित्व में आने के
साथ ही भूमि की खरीद-फरोख्त पर अंकुश लगाने की मांग उठने लगी। प्रदेश में वर्ष 2002 में पहली निर्वाचित एनडी तिवारी सरकार
ने भूमि कानून को कड़ा बनाने के लिए कदम उठाए। वर्ष 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने भू-कानून में संशोधन किया।
रविंद्र बड़थ्वाल l Mahasamar 2024: देहरादून उत्तराखंड में भूमि का मुद्दा जन भावनाओं से गहरा जुड़ा हुआ है। उच्च और दुर्गम
पर्वतीय क्षेत्र हों अथवा कम ऊंचाई वाले स्थान या तराई क्षेत्र, विषम भौगोलिक परिस्थितियों को चुनौती देते हुए विविध रंगों से सरोबार संस्कृति फली-फूली है।
पृथक राज्य बनने के बाद इस मध्य हिमालयी क्षेत्र की जनाकांक्षाओं को उम्मीदों को नए पर मिले, लेकिन इन उम्मीदों के उड़ान भरने
की राह में 71 प्रतिशत संरक्षित वन क्षेत्र, पर्यावरणीय बंदिशें और उपलब्ध बेहद सीमित भू-भाग आड़े आ गए। अस्पतालों, शिक्षण संस्थानों जैसे जन उपयोगी कार्यों, आवश्यक सुविधाओं के विस्तार, अवस्थापना और औद्योगिक विकास के लिए भूमि की उपलब्धता बड़ी चुनौती है।
फिर क्यों आंदोलित हैं उत्तराखंड के लोग, क्या है भू-कानून और मूल निवास का मुद्दा?
एक लंबे अंतराल के बाद उत्तराखंड के लोग आंदोलित हैं। राजधानी देहरादून में 24 दिसंबर को प्रदर्शन का आह्वान किया गया है। इस बार का मुद्दा है, सशक्त भू-कानून और मूल निवास प्रमाण पत्र। लेकिन आखिर यह मुद्दा क्या है, आइए समझते हैं।
दरअसल, उत्तराखंड एकमात्र हिमालयी राज्य है, जहां राज्य के बाहर के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि, गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद सकते हैं। वर्ष 2000 में राज्य बनने के बाद से अब तक भूमि से जुड़े कानून में कई बदलाव किए गए हैं और उद्योगों का हवाला देकर भू खरीद प्रक्रिया को आसान बनाया गया है।
लोगों में गुस्सा इस बात पर है कि सशक्त भू कानून नहीं होने की वजह से राज्य की जमीन को राज्य से बाहर के लोग बड़े पैमाने पर खरीद रहे हैं और राज्य के संसाधन पर बाहरी लोग हावी हो रहे हैं, जबकि यहां के मूल निवासी और भूमिधर अब भूमिहीन हो रहे हैं। इसका असर पर्वतीय राज्य की संस्कृति, परंपरा, अस्मिता और पहचान पर पड़ रहा है।
देश के कई राज्यों में कृषि भूमि की खरीद से जुड़े सख्त नियम हैं। पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में भी कृषि भूमि के गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद बिक्री पर रोक है।
राज्य के कुल क्षेत्रफल (56.72 लाख हेक्टेअर) का अधिकांश क्षेत्र वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 63.41%) और बंजर भूमि के तहत आता है। जबकि कृषि योग्य भूमि बेहद सीमित, 7.41 लाख हेक्टेयर (लगभग 14%) है।
इतिहासकार और उत्तराखंड के मामलों के जानकार शेखर पाठक कहते हैं कि आजादी के बाद से अब तक राज्य में एकमात्र भूमि बंदोबस्त 1960 से 1964 के बीच हुआ है। इन 50-60 सालों में कितनी कृषि योग्य भूमि का इस्तेमाल गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए किया गया है, इसके आंकड़े न तो सरकार के पास हैं और न ही हमारे पास।
राज्य में विकास से जुड़े कार्यों, सड़क, रेल, हैलीपैड समेत बुनियादी ढांचे का विस्तार, पर्यटन का विस्तार, उद्योग का विस्तार, भूस्खलन जैसी आपदाओं में जमीन का नुकसान, इस सब में कितनी कृषि योग्य भूमि चली गई, इसका ब्यौरा कहां है? जो जमीन दस्तावेजों में दर्ज है, वो है भी, या नहीं, इसकी जानकारी भी नहीं।
पाठक इन सवालों की पृष्ठभूमि में ब्रिटिश काल में ले जाते हैं। वर्ष 1815-16 में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान एक-दो वर्ष के भीतर जमीनों का बंदोबस्त किया गया। क्योंकि उस समय खेती पर लिया जाने वाला टैक्स आमदनी का बड़ा जरिया था। उस समय भी पहाड़ों में 10-12 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि रही। वर्ष 1840-46, 1870 में जमीन का बंदोबस्त (लैंड सेटलमेंट) हुआ।
इस दौरान खेती का विस्तार हुआ। प्रति व्यक्ति जमीन के साथ-साथ आबादी भी बढ़ी। 1905-06 तक कुछ और जमीन बंदोबस्त हुए। ब्रिटिश काल में वर्ष 1924 के बंदोबस्त के बाद स्वतंत्रता आंदोलन तेज होने के साथ कोई उल्लेखनीय बंदोबस्त नहीं हुए।
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में यूपी जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 (जेडएएलआर एक्ट) आया। कुमाऊं और उत्तराखंड जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 में राज्य में भूमि बंदोबस्त हुआ।
राज्य की सीमित कृषि योग्य भूमि का इस्तेमाल ही बुनियादी ढांचे के विकास के लिए हुआ। पाठक कहते हैं “तराई में खेती की जमीन पर उद्योग आए। शहरीकरण हुआ। पहाड़ों में जिला मुख्यालय, शिक्षण संस्थान, सब श्रेष्ठ कृषि भूमि पर बने। टिहरी बांध की झील से पहले भिलंगना और भागीरथी की घाटियां बेहद समृद्ध कृषि भूमि थीं, जो झील का हिस्सा बन गईं।
इसी तरह खेती के लिहाज से समृद्ध पिथौरागढ़ में आईटीबीपी की दो बटालियन, दो कैंटोनमेंट, रक्षा मंत्रालय का पंडा फार्म सबकुछ कृषि भूमि पर बना। पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय की 16,000 एकड़ भूमि का एक बड़ा हिस्सा फैक्ट्रियों, रेलवे से लेकर सरकारी प्रतिष्ठानों को दिया गया। यहां हेलीपैड के लिए भी कृषि विवि की भूमि दी गई।”
भू कानूनों में बदलाव
राज्य में बाहरी लोगों द्वारा भूमि खरीद सीमित करने के लिए वर्ष 2003 में तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार ने उत्तर प्रदेश के कानून में संशोधन किया और राज्य का अपना भूमि कानून अस्तित्व में आया। इस संशोधन में बाहरी लोगों को कृषि भूमि की खरीद 500 वर्ग मीटर तक सीमित की गई। वर्ष 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने संशोधन कर भूमि खरीद की सीमा घटाकर 250 वर्ग मीटर की।
बड़ा बदलाव 2018 में भाजपा के त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री रहते हुए लिया गया। जब जेडएएलआर एक्ट में संशोधन कर, उद्योग स्थापित करने के उद्देश्य से पहाड़ में जमीन खरीदने की अधिकतम सीमा और किसान होने की बाध्यता खत्म की गई। साथ ही, कृषि भूमि का भू उपयोग बदलना आसान कर दिया। पहले पर्वतीय फिर मैदानी क्षेत्र भी इसमें शामिल किए गए।
उस समय सदन में एक मात्र विधायक मनोज रावत ने इसका विरोध किया। पूर्व कांग्रेस विधायक मनोज रावत कहते हैं “सरकार उद्योगों के आने का हवाला दे रही थी। जबकि हर जिले में छोटे-छोटे औद्योगिक क्षेत्र बनाए गए हैं लेकिन आज तक इनमें उद्योग नहीं लगे।
हरिद्वार, उधमसिंह नगर और पौड़ी के यमकेश्वर के कुछ क्षेत्रों में जमीनों की खरीद कर लैंडबैंक बनाया गया है। गढ़वाल में श्रीनगर से आगे अलकनंदा और मंदाकिनी घाटी, बद्रीनाथ, केदारनाथ की ओर व्यावसायिक फायदे वाली सारी जमीन बिक चुकी हैं। ज्यादातर होटल और रिसॉर्ट के लिए है”।
2018 के संशोधन में व्यवस्था की गई थी कि खरीदी गई भूमि का इस्तेमाल निर्धारित उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता या किसी अन्य को बेचा जाता है तो वह राज्य सरकार में निहित हो जाएगी। लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सरकार ने सिंगल विंडो एक्ट लागू किया। इसके तहत खरीदी गई कृषि भूमि को गैर कृषि घोषित करने के बाद वह राज्य सरकार में निहित नहीं की जा सकती।
धामी सरकार ने भी एक तरफ कानून में ढील दी, वहीं भू-सुधार के लिए एक समिति भी गठित की। इस समिति ने वर्ष 2022 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। जिसमें सख्त भू कानून लाने के लिए सुझाव दिए गए। लेकिन इस रिपोर्ट के बाद अब तक कुछ बदला नहीं है।
नैनीताल हाईकोर्ट में वकील चंद्रशेखर करगेती कहते हैं अलग-अलग राज्यों में जमीन को लेकर अलग-अलग नियम हैं। जम्मू कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालयी राज्यों ने अपनी जमीनें सुरक्षित की हैं, सिर्फ उत्तराखंड ही एकमात्र राज्य है जहां कोई भी आकर जमीन खरीद सकता है।
क्या है मूल निवास प्रमाण पत्र
उत्तराखंड में 1950 के मूल निवास की समय सीमा को लागू करने की मांग की जा रही है। नैनीताल हाईकोर्ट में वकील चंद्रशेखर करगेती बताते हैं कि देश में मूल निवास यानी अधिवास को लेकर साल 1950 में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन जारी हुआ था।
इसके मुताबिक देश का संविधान लागू होने के साथ वर्ष 1950 में जो व्यक्ति जिस राज्य का निवासी था, वो उसी राज्य का मूल निवासी होगा। वर्ष 1961 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने दोबारा नोटिफिकेशन के जरिये ये स्पष्ट किया था। इसी आधार पर उनके लिए आरक्षण और अन्य योजनाएं चलाई गई ।
पहाड़ के लोगों के हक और हितों की रक्षा के लिए ही अलग राज्य की मांग की गई थी। उत्तराखंड बनने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी भाजपा सरकार ने राज्य में मूल निवास और स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ डेट वर्ष 1985 तय कर दी। जबकि पूरे देश में यह वर्ष 1950 है। इसके बाद से ही राज्य में स्थायी निवास की व्यवस्था कार्य करने लगी।
लेकिन मूल निवास व्यवस्था लागू करने की मांग बनी रही। वर्ष 2010 में मूल निवास संबंधी मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने देश में एक ही अधिवास व्यवस्था कायम रखते हुए, उत्तराखंड में 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य किया।
लेकिन वर्ष 2012 में इस मामले से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि 9 नवंबर 2000 यानी राज्य गठन के दिन से जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा है, उसे यहां का मूल निवासी माना जाएगा। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अदालत के इस आदेश को स्वीकार कर लिया और इस पर आगे कोई अपील नहीं की।
झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में भी मूल निवास का मुद्दा उठ चुका है। इन राज्यों में भी 1950 को मूल निवास का आधार वर्ष माना गया है और इसी आधार पर जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाते हैं।